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क्रिया-कोश
१०५ किसी जीव या अजीव वस्तु के प्रति अहंकार, अभिमान या मद के भाव लाना मान है। ये भाव कषाय मोहनीय कर्म के उदय या उदीरणा से उत्पन्न होते हैं । मान की क्रिया अजीव तथा जीव सभी द्रव्यों के प्रति जीव करते हैं। नारकी से लेकर वैमानिक देव तक के जीव सभी द्रव्यों के प्रति मान की क्रिया करते हैं ।
(ख) अत्थि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कजइ ? हंता, अस्थि xxx। एगिदिया जहा जीवा तहा भाणियत्रा, जहा पाणाइवाए तहा xxx कोहे जाव मिच्छादसणसल्ले । ( देखो क्रमांक २२.४ )
-भग० श १ । उ ६ । प्र २१५। पृ० ४०३ जीव मान से क्रिया करते हैं। मानक्रिया यदि व्याघात नहीं हो तो छओं दिशाओं को और व्याघात होने से कदाचित तीन दिशाओं को, कदाचित् चार दिशाओं को, कदाचित् पाँच दिशाओं को स्पर्श करती है। मानक्रिया आत्मकृत है, परकृत या उभयकृत नहीं है । यह क्रिया अनुक्रमपूर्वक की जाती है बिना अनुक्रमपूर्वक नहीं की जाती है ।
नारकी जीव भी मानक्रिया सब द्रव्यों के विषय में करते हैं ! यह क्रिया यावत नियमपूर्वक छओं दिशाओं को स्पर्श करतो है तथा औधिक जीव की तरह यावत् अनुक्रमपूर्वक की जाती है।
एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत् वैमानिक देव तक सब दंडकों में नारकी के समान कहना चाहिए !
एकेन्द्रियों का कथन औधिक जोवों की तरह कहना चाहिए ! "५१.३ मानप्रत्ययिक क्रिया और जीव
(क) से जहानामए-केइ पुरिसे जाइ-मएण वा, कुल-मएण वा, बल-मरण वा, रूव-मएण वा, तव-मएण वा, सुय-मएण वा, लाभ-मएण वा, इस्सरिय-मएण वा, पन्नामएण वा, अन्नयरेण वा, मय-ठाणेणं मत्ते समाणे परं हीलेइ, निंदेइ, खिसइ, गरहइ, परिभवइ, अवमन्नेइ, इत्तरिए अयं, अहमंसि पुण विसिट्ठ-जाई-कुल-बलाइ-गुणोववेए --एवं अप्पाणं समुकत्से, देह-च्चुए कम्म-बिइए अवसे पयाइ । तंजहा-गब्भाओ गम्भं, जम्माओ जम्मं, माराओ मारं, नरगाओ नरगं, चंडे, थद्ध चवले माणी यावि भवइ । एवं खलु तस्स तपत्तियं सावज ति आहिज्जइ। नवमे किरियट्ठाणे माणवत्तिए त्ति आहिए।
-सूय० श्रु २ । अ२ ! सू १० । पृ० १४७-४८ . यदि कोई व्यक्ति जातिमद, कुल, बल, रूप, तप, श्रुत, लाभ, ऐश्वर्य, प्रज्ञामद आदि के मद में उन्मत्त होकर दूसरे मनुष्यों की अवहेलना, निन्दा, घृणा, भर्त्सना, पराभव और तिरस्कार करता है तथा मन में सोचता है कि ये व्यक्ति इतर--नीच पामर हैं तथा मैं विशिष्ट जाति, कुल, बलादि गुणों से युक्त हूँ। इस प्रकार अहंकार में चूर वह व्यक्ति देह को छोड़कर
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"Aho Shrutgyanam"