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क्रिया कोश
१५ क्रियारुचि सम्यक्त्व के दश भेदों में से एक भेद है । दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय, सत्य, समिति तथा गुप्ति आदि सदनुष्ठानिक क्रियाओं में भावरुचि अर्थात् वास्तविक रुचि क्रियारूचि सम्यक्त्व है ।
मल-दसविहे सरागसम्मइंसणे पन्नते, तंजहा
निसरगुवएसरुई आणाई, सुत्तबीयरूईमेव । अभिगमवित्थाररुई किरियासंखेयधम्मई ।।
-~-ठाण० स्था १०! सू ७५१ । पृ० ३१० मूल-सर गर्दसणारिया दसविहा पन्नत्ता, तंजहा--
निसग्गुवएसरुई आणारुई सुत्तबीयरूईमेव । अभिगमवित्थाररुई किरियासंखेवधम्मरुई ।।
-पण्ण ० प ११ सू ११० । पृ. २८६ टीका-क्रिया सम्यकसंयमानुष्ठानम, तत्र रुचिर्यस्य स क्रियारूचिः दर्शनार्थ
भेदे।
क्रियारूचि सरागदर्शनार्य के दश भेदों में से एक भेद है । सम्यग् संयमानुष्ठान में जिसकी रुचि हो वह क्रियारुचि । जिस सरागदर्शनार्य की क्रिया--सम्यग्संयमानुष्ठानों में रुचि हो वह क्रियारुचि सरागदर्शनार्य है। .०४.३२ किरियावरणेजीवे--क्रियावरणजीव ठाण ० स्था ७। सू ५४२। पृ० २७६
मूल- सत्तविहे विभंगणाणे पन्नत्ते, तंजहा—एगदिसिलोगाभिगमे, पंचदिसिलोगाभिगमे, किरियावरणे जीवे, मुदग्गे जीवे, अमुदग्गे जीवे, रूबी जीवे, सम्वमिणं जीवा।
यह विभंगज्ञान का एक भेद है। किसी तथारूप श्रमण अथवा माण के विभंग-ज्ञान उत्पन्न होता है तथा उस विभंगज्ञान से वह श्रमण-माहण प्राणातिपातादि क्रियाओं को करते हुए जीवों को देखता है लेकिन तज्जन्य कर्मावरण को नहीं देखता है और अपने को अतिशय ज्ञान-दर्शन वाला समझता हुआ कहता है कि जीव क्रियावरण होते हैं, कर्मावरण नहीं ।
तथा कई विभंगज्ञानी श्रमण-माण ऐसा कहते हैं कि जीव क्रियावरण नहीं होते हैं, कर्मावरण होते हैं।
इस तरह का विभंगशान 'क्रियावरणजीव' विभंगज्ञान है ।
.०४ ३३ किरियावाई-क्रियावादी ठाण स्था ४। उ ४। सू ३४५ । पृ० २४८
जीव अजीव आदि नव पदार्थों के अस्तित्व में विश्वास रखने वाला-क्रियावादी । यह क्रियावादी ही वास्तविक क्रियावादी है ।
"Aho Shrutgyanam"