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________________ एक प्रदेश से अन्य प्रदेश में स्थानान्तर करते हैं, वे जहाँ हैं वहीं स्थिर रहते हैं, पर अपनेअपने भावगुणों के अनुसार परिणमन अवश्य करते हैं । जीव के दो भाव होते हैं - एक परिस्पंदनात्मक, दूसरा अपरिस्पंदनात्मक । ( देखो राज० ५/२२ | पृ० ४८१ ) जिसमें या जिससे जीव के आत्मप्रदेशों का परिस्पंदन होता है वह परिस्पंदनात्मक भावक्रिया है । अपरिस्पंदनात्मक भाव परिणाम कहलाता है--द्रव्यस्य पर्यायो धर्मान्तरनिवृत्ति-धर्मान्तरोपजननरूपः अपरिस्पन्दात्मकः परिणामः ( सर्व ० ५/२२ | पृ० २६२) ज्ञान दर्शन-उपयोग आदि में जीव जो परिणमन करता है उससे उसके आत्मप्रदेशों का परिस्पंदन नहीं होता है अतः ज्ञान-दर्शन उपयोग अपरिस्पंदनात्मक है तथा जीव परिणाम है। परिणाम और क्रिया दोनों जीव के भाव हैं, दोनों में अन्तर यह है कि परिणाम अपरिस्पंदनात्मक है तथा क्रिया परिस्पंदनात्मक होती है । जब जीव कोई क्रिया करता है तब उसके आत्मप्रदेशों का परिस्पंदन होता है । पुद्गल के भी दो भाव होते हैं -- परिस्पंदनात्मक तथा अपरिस्पंदनात्मक । अपरिस्पंदनात्मक भाव में पुद्गल वर्ण- गन्ध-रस-स्पर्श तथा अगुरुलघु आदि गुणों में परिणमन करता है । ( सर्व ० ५/२२ | पृ० २६२ ) परिस्पंदनात्मक भाव में एजनादि क्रिया तथा देशान्तर प्राप्ति रूप क्रिया करता है । जीव दो प्रकार के होते हैं- सशरीरी तथा अशरीरी । अशरीरी -- सिद्ध जीव किसी प्रकार की परिस्पंदनात्मक किया नहीं करते हैं अतः अक्रिय होते हैं ( देखो क्रमांक ८१.१ ) यहाँ ख्याल रखने की बात है कि प्रथम समय के सिद्ध एजन क्रिया सहित ( सेया ) होते हैं । ( देखो क्रमांक ६३७ ) सशरीरी जोव दो प्रकार के होते हैं । चतुर्दश गुणस्थानवर्ती तथा इतर | चतुर्दशगुणस्थानवर्ती जीव शैलेशी- अडोल-अकम्प होते हैं, उनके सम्पूर्ण योग निरोध हो जाते हैं, उनके आत्मप्रदेश सर्वथा निष्कंप होते हैं, उस समय उनके कोई क्रिया नहीं होती है अतः वे अयोगी-अक्रिय कहलाते हैं । उस अवस्था में उनके परप्रयोग--- परसंघात से किया हो सकती है, निजके शरीर से कोई क्रिया नहीं होती है । ( देखो क्रमांक -६३*५) चक्षुपक्ष्मनिपात जैसी सूक्ष्मातिसूक्ष्म क्रिया भी नहीं होती है । उनका शरीर भी बिल्कुल अडोल रहता है । पर जीव द्वारा परसंघात होने से या प्रचण्ड वायु, भूमिकम्प आदि के संघात से उनके शरीर में किया हो सकती है लेकिन सम्भवतः यह संघातक्रिया शरीर के सम्पूर्ण निश्चेष्ट होने से, उनके आत्म-प्रदेशों का परिस्पंदन नहीं करती है । यह अनुसंधान का विषय है । चतुर्दशगुणस्थानवर्ती जीव जब सर्व प्रकार की क्रियाओं का व्यवच्छेदसमुच्छेद करता है तब वह सर्व क्रिया रहित हो जाता है । ( देखो क्रमांक ६३'४ )। तदनन्तर जीव शरीर से छूटकर एक समय की देशान्तरगामिनी- मोक्षगामिनी गति करता है । ( देखो क्रमांक ७३.१० ) उस समय उसके एजनक्रिया होती है- ऐसा कहा जाता है । [ 27 ] "Aho Shrutgyanam"
SR No.009528
Book TitleKriya kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1969
Total Pages428
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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