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'४२'३'३ विभंगअज्ञानक्रिया
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क्रिया - कोश
विभंगो मिथ्यादष्टेरवधिः स एवाज्ञानं विभङ्गाज्ञानमिति ।
- ठाण० स्था ३ । उ ३ । सू १८८७ | टोका मिथ्यादृष्टि का अवधिज्ञान विभंग है । मिथ्यादृष्टि की अवधि वाला अज्ञान विभंगअज्ञान है । इस विभंग अज्ञान से होनेवाली क्रिया विभंग अज्ञान क्रिया होती है ।
- ४३ अर्थदंडप्रत्ययिक क्रिया (स्थान)
*४३१ परिभाषा / अर्थ
भूल से जहानामए के पुरिसे आयहेडं वा नाइहेडं वा अगारहेडं वा परिवारहेड वा मित्तहेउ वा नागहेडं वा भूयहेडं वा जक्लहेडं वा तं दंडं तसथावरेहिं पाणेहि सयमेव निसिरइ अन्नेण वि निसिरावेइ अन्नंपि निसिरंतं समणुयाणइ, एवं खलु तर तप्पत्तियं सावज्जं ति आहिज्जइ । पढमे दंडसमादाणे अट्ठादंडवत्तिए त्ति आहिए । - सूय० श्रु २ । अ २ । सू २ | पृ० १४५
समादानं ग्रहणं - ( दण्ड- समादानं) |
टोका दण्डः पापोपादानसंकल्पस्तस्य × × × । आत्मार्थाय स्वप्रयोजनकृते दण्डोऽर्थदण्डः पापोपादानम् ।
- सूय० श्रु २ । अ २ । सू १ । टीका
यदि कोई व्यक्ति अपने लिए, जाति, घर, परिवार, मित्र, नाग, भूत और यक्ष के लिए किन्हीं बस-स्थावर प्राणियों के प्राण का घात स्वयं करे, दूसरे से करावे और घात करते हुए व्यक्ति का अनुमोदन करे, तो उसको अर्थदंडप्रत्ययिक सावद्यक्रिया लगती है ।
यह १३ क्रियास्थानों में पहला अर्थदंड प्रत्ययिक दंडसमादान है ।
प्रथम पाँच क्रियास्थानों को दंड-समादान नाम दिया गया है क्योंकि इनमें प्रायः दूसरे जीवों का उपघात होता है ।
-४४ अनर्थदण्डप्रत्ययिक क्रिया (स्थान)
'४४१ परिभाषा / अर्थ
से जहानामए केइ पुरिसे जे इमे तसा पाणा भवंति ते नो अचार नो अजिणाए नो मंसाए नो सोणियाए एवं हिययाए पित्ताए बसाए पिच्छाए पुच्छाए वालाए सिंगाए विसाणाए दंताए दाढाए नहाए व्हारुणिए अट्ठीए अट्ठिमंजाए नो हिंसिस मेत्ति, नो हिंसंति मे त्ति, नो हिसिस्संति मे त्ति ; नो पुत्त पोसणाए नो पसुपोसणाए नो अगार- परिवहणयाए नो समण माहण-वत्तणाहेउ नो तस्स सरीरगस्स
"Aho Shrutgyanam"