________________
क्रिया - कोश
४७
करता है, जिसमें स्वप्नदर्शक जितनी चेतना भी नहीं है, वे जीव भी पापकर्म का बंध करते हैं--- ऐसा जो आप कहते हैं वह गलत है । (ग) स्थापना का समर्थन :
-----
तत्थ पन्नवए चोयगं एवं वयासी- 'तं सम्मं जं मए पुठवं वृत्तं । असंतएण मणेणं पावएणं, असंतियाए वइए पावियाए, असंतएणं कायेणं पावएणं, अहणं तस्स अमणक्खस्स अवियार-मण वयण-कायवकास, सुविणमवि अपसओ पावे कम्मे कज्जइ, तं सम्मं ।'
कस्सतं हे !
आयरिय आह- 'तत्थ खलु भगवया छज्जीवणिकायहेऊ पन्नता, तंजहा -- पुढविकाइया जाव तसकाइया ; इच्चेएहिं छहिं जीव- णिकाएहिं आया अपडिहय-पञ्चक्खाय - पावकम्मे निच्चं पसढ-विडवाय-चित्तदंडे, तंजहा - पाणइवाए जाव परिग्गहे कोहे जाव मिच्छादंसणसल्ले । -सूय० श्रु २ । अ ४ । सू २ | पृ० १६६-६७ प्रत्युत्तर देते हुए आचार्य ने कहा- जैसा मैंने पूर्व में कहा है कि हिंसा में मन-वचन-काय की प्रवृत्ति के बिना भी अप्रतिहत - अप्रत्याख्यात आत्मा के पापकर्म का बन्ध होता है- यह कथन समुचित है ।
भगवान ने पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, सकाय — इन छः जीवनिकायों का प्रतिपादन किया है तथा इनको पापकर्मबन्ध का हेतु कहा है।
जो जीव इन छः जीवनिकायों के प्रति पाप करने में, उनका हनन करने में बाधारहित है, अविरत है तथा सदा जिसका चित्त हिंसा करने में, दण्ड देने में खुला है उसके पापकर्म का बन्ध होता है ।
इसी प्रकार प्रत्याख्यान के अभाव में मृषावाद यावत् मिथ्या - दर्शनशल्य का भी बंध होता है ।
टीकाकार कहते हैं - एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय के अव्यक्त-विज्ञान, अस्वप्नादि अवस्था होते हुए भी पापकर्म का बन्ध होता है क्योंकि उनकी आत्मा पापकर्म से अप्रतिहतअविरत है ।
(घ) स्थापना के समर्थन में वधक का दृष्टान्त :
आयरिय आह- 'तत्थ खलु भगवया वहए दिनं ते पन्नत्ते । से जहानामएवहए सिया गाहावइम्स वा गाहावइपुत्तस्स वा रण्णो वा रायपुरिसरस वा खर्ण निहाय पविसिरसामि, खणं लद्धणं वहिस्सामि ( सं ) पहारमाणे, से किं नु हु नाम से बहुए तस्स गाहावइरस वा गाहावरपुत्तस्स वा रण्णो वा रायपुरिसरस वा खणं निद्दाय
" Aho Shrutgyanam"