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________________ क्रिया-कोश पविसिस्सामि, खणं लद्वणं वहिस्सामि, पहारेमाणे दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए नित्र पसद विश्वाय चितदंडे भवइ ?' एवं वियागरेमाणे समियाए वियागरे चोयए हंता, भवइ । आयरिय आह 'जहा से वहए तम्स गाह्रावइस्स वा तस्स गाहावइपुत्तरस वा रण्णो वा रायपुरिसम्स वा स्वणं निहाय परिसिस्सामि, स्वणं लद्धणं वहिस्सामि त्ति पहारेमाणे दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए निरुचं पसढ विउवाय चित्तदंडे, एवमेव बाले वि सव्वेसि पाणाणं जाव सव्वेसि सत्ताणं दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए निच्चं पसढ विश्वाय चित्तदण्डे, तंजहा- पाणाश्वाए जाव मिच्छादंसणसल्ले । एवं खलु भगवया अक्खाए असंजए, अविरए, अपडिहयपच्चक्खाय-पावकम्मे, सकिरिए, असंवुडे, एगंतदंडे, एगंतबाले, एगंतसुत्ते यावि भवइ, से बाले अवियार-मण-वयण- कायवक सुविणमवि ण परसर पावे य से कम्मे कज्जइ । जहा से वहए तरस वा गाहावइस्स जाव तरस वा रायपुरिसम्स पत्तेयं पत्तयं चित्तसमादाए दिया वा राओ वा सुत्त वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए निश्च पसढ - विउवाय-चित्तदंडे भवइ । ४८ एवमेव बाले सव्वेसि पाणाणं जाव सन्वेसि सत्ताणं पत्तेयं पत्तेयं चित्तसमादाए दिया वा राओ वा सुते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए निबं पसढ-विडवाय-चित्तदंडे भवइ ।' -- सूय० श्रु २ । अ ४ । सू २ । पृ० १६७ आचार्य ने आगे कहा- “ इस विषय को समझने के लिये अरिहन्त भगवान् ने वधक का दृष्टान्त प्रतिपादन किया I जैसे कोई वधक किसी कारण से गृहपति, गृहपति के पुत्र, राजा या राजपुरुषों पर कुपित होकर यह विचार करता है--" अवसर पाकर उनके घर में प्रवेश करूँगा और कोई मौका पाकर या अवसर देख कर उनको मार डालूँगा ।" "ऐसा विचार करने वाला वह वधक रात में या दिन में, सोते हुए या जागते हुए गृहपति आदि का अमित्र, बुरे विचार वाला, नित्यमूढ़ और हिंसक चित्तवृत्ति वाला होता है । क्या वह ( जीव का विनाश नहीं करते हुए भी ) वधक है ?" ऐसा पूछनेपर प्रवादी ने 'आपने समुचित कहा है, वह वधक है।" कहा वधक के दृष्टान्त से बाल अज्ञानी जीव की तुलना करते हुए आचार्य ने प्रवादी से कहा~~~“जिस प्रकार वह वधक रात में या दिन में, सोते हुए या जागते हुए --गृहपति आदि का अमित्र, मिथ्याभाव में स्थित, हिंसा अवसरापेक्षी है, उसी प्रकार बाल अज्ञानी जीव भी रात में या दिन में, सोते हुए या जागते हुए सर्व प्राण-भूत- जीव-सत्त्वों के प्रति अमैत्री व बुरे भाव वाले, नित्यमृढ़, हिंसा अनुगत चित्तवृत्ति वाले हैं।" "Aho Shrutgyanam"
SR No.009528
Book TitleKriya kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1969
Total Pages428
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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