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________________ ४६ क्रिया-कोश अतः भगवान ने कहा है कि ऐसे जीव असंयमी, अवती. पापकर्म करने में किसी भी बाधा-रुकावट से रहित, सक्रिय, असंवृत्त, एकान्त सावध प्रवृत्ति वाले, एकान्तबाल और एकान्त सुप्त है, मन-वचन-काया से विचाररहित तथा स्वप्न जितनी भी चेतना से रहित हैं फिर भी वे जीव ( हिंसा नहीं करते हुए भी प्रत्याख्यान के अभाव में ) पापकर्म का बन्ध करते हैं। जैसा प्राणातिपात सम्बन्धी दृष्टान्त दिया वैसे मृषावाद यावत् मिथ्यादर्शनशल्य के दृष्टान्त भी समझ लेने चाहिये। जिस प्रकार वधक दिन में या रात में, सोये हुए या जागते हुए गृहपति, गृहपति के पुत्र, राजा या राजपुरुषों में से प्रत्येक के प्रति प्राणघात का विचार करता है तथा प्राणघात का विचार रखने वाला वह वधक उन गृहपति आदि प्रत्येक का अमित्र, दुष्ट विचार वाला, नित्यमूढ और हिंसक चित्तवृत्ति वाला है ; उसी प्रकार बाल अज्ञानी एकेन्द्रियादिक जीव दिन में या रात में, सोते हुए या जागते हुए सर्व प्राण भूत जीव-सत्त्वों में से हर एक के प्रति अमैत्री भाव वाले, दुष्ट विचार वाले, निरन्तर शठ और हिंसक चित्तवृत्ति वाले होते हैं। अतः उनको भी पापकर्म का वन्ध होता है। (च) प्रतिस्थापक की आपत्ति : णो ण? सम? ( चोयए) इह खलु बहवे पाणा० (भूया-जीवा-सत्ता) जे इमेणं सरीर-समुत्सएणं णो दिट्ठा वा सुया वा नाभिमया का वन्नाया वा जेसि णो पत्तेयं पत्त य चित्तसमायाए दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए निचं पसढ-विउवाय-चित्तदण्डे, तंजहा-पाणइवाए जाच मिच्छादंसणसल्ले । सूय० श्रु २१ अ ४ । सू ३ ! पृ० १६७ प्रवादी ने कहा कि आपका कथन यथार्थ नहीं है क्योंकि यह संभव नहीं है कि प्रत्येक प्राणी प्रत्येक का अमित्र-शत्रु हो! इस विशाल लोक में अनन्त प्राणी हैं उनमें से बहुत से प्राणी ऐसे हैं जिनका परस्पर में शरीर से संसर्ग नहीं हुआ है, आँखों से एक दूसरे को देखा नहीं है, कानों से सुना नहीं है, परिचय नहीं हुआ है तथा एक दूसरे के सम्बन्ध में विशेष जानकारी भी नहीं है। अतः एक दूसरे के प्रति विनाश का चिन्तन संभव नहीं है तथा रात्रि-दिवस, सोते, जागते वे परस्पर में अमित्र, बुरे विचार वाले, निरन्तर शठ, हिंसक चित्तवृत्ति वाले नहीं हो सकते हैं और इस कारण उनको पापकर्म-प्राणातियात यावत्-मिथ्यादर्शनशल्य का वन्ध नहीं हो सकता है। (छ) आपत्ति के निराकरण के लिये संज्ञी व असंज्ञी दृष्टान्त : आयरिय आह–'तत्थ खलु भगवया दुवे दिटुंता पन्नत्ता । तंजहा--- सन्निदिट्टते य असन्निदिढते य।' --सूय० श्रु २ 1 अ ४ 1 सू ४ । पृ० १६७ "Aho Shrutgyanam"
SR No.009528
Book TitleKriya kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1969
Total Pages428
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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