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क्रिया कोश अट्ठावीसा दो वाससया तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्स। दोकिरियाणं दिट्टी उल्लुगतीरे समुप्पण्णा ॥ नइखेडजणवउल्लुगमहागिरिधणगुत्त अजगंगे य। किरिया दो रायगिहे महातवोतीरमणिना ए॥ नइमुल्लुगमुत्तरओ सरए सीयजलमन्नगंगस्स। सूराभितत्तसिरसो
सीओसिणवेयणोभयओ॥ लग्गोऽयमसम्गाहो जुगवं उभयकिरिभोवओगो त्ति। जं दो वि समयमेव य सीओसिणवेयणाओ मे ॥ तरतमजोगेणायं गुरुणाऽभिहिओ तुम न लखेसि । समयाइसुहुमयाओ मणोऽतिचलसुहुमयाओ य॥ सुहुमासुचरं चित्तं इंदियदेसेण जेण जं कालं। संबज्झह तं तम्मत्तनाणदेउ त्ति नो तेण ।। उवलभए किरियाओ जुगवं दो दूरभिण्णदेसाओ। पाय-सिरोगयसीउण्हवेयणमणुभवरूपाओ उवओगमओ जीवो उवउजइ जण जम्मि जं कालं। सो तम्मओवओगो होइ जहिं दोवओगम्मि ।
-विशेमा० गा २४२४ से २४३१ भगवान महावीर के निर्वाण के २२८ वर्ष बाद उल्लुकानदी के तौर पर "एक समय में दो क्रिया होती है' इस दृष्टि की उत्पत्ति हुई। उल्लुका नदी के तट पर मिट्टी की दिवाल से आवृत-घेरा हुआ उल्लुका नामक एक खेड़ा-छोटा गाँव था । वहाँ महागिरि धनगुप्त नामक आचार्य वास कर रहे थे और उनके शिष्य आर्यगंग थे। आचार्य धननुप्त नदी के पूर्व तट पर तथा आर्य गंग अपर तट पर निवास कर रहे थे।
एक दिन शरदकाल में आर्य गंग सूरिवन्दनार्थ नदी पार कर रहे थे। उनका माथा खल्वाट था। ऊपर से सूर्य तप रहा था अतः उनको सिरमें उष्णता का अनुभव हो रहा था। नीचे नदी का पानी शीतल था इसलिए पैर में शीतलता का अनुभव हो रहा था।
नदी पार करते हुए-मिथ्यात्व मोहनीय कर्मोदय से उनके विचार उत्पन्न हुआ कि सिद्धान्त में दो क्रियाओं का युगपत होना निषिद्ध है और मुझे एक समय में ही शीतलता और उष्णता का वेदन हो रहा है अतः अनुभव-सिद्ध होने के कारण आगमोक्त बात ठीक नहीं प्रतीत होती है। इस प्रकार विचार करते हुए गुरु के पास जाकर वन्दनानन्तर निवेदन किया:
"Aho Shrutgyanam"