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क्रिया-कौश
बुद्ध-मुक्त होता है— निर्वाण को प्राप्त करता है और सर्व दुःखों को अन्त करनेवाली अन्तक्रिया करता है ।
-७३७ सलेशी पृथ्वी - अपू-वनस्पतिकायिक जीव और अनन्तर भव में अन्तक्रिया -
से नूणं भंते! काउलेस्से पुढविकाइए काउलेत्सेहितो पुढविकाइएहिंतो अनंतरं ट्टा माणुस विग्ग लभइ माणुस्सं विग्गहं लभइत्ता केवलं बोहिं बुज्झइ केवलं बोहिं बुज्झत्ता तओ पच्छा सिज्झइ जाव अंतं करेइ ? हंता, मागंदियपुत्ता ! काउलेस्से पुढविकाइए जाव अंतं करेइ |
से नूणं भंते! काउलेस्से आउकाइए काउलेस्सेहिंतो आउकाइपहिंतो अनंतरं उवत्ता माणुस्सं विग्गह लभइ माणुस्सं विग्ग लभइत्ता केवलं बोहिं बुज्झइ, जाव करे ? हंता, मागंदियपुत्ता ! जाव अंतं करेइ ।
से नूर्ण भंते! काउलेस्से वणस्सइकाइए एवं चेव जाव अंतं करेइ । xxx एवं खलु अज्जो ! कण्हलेस्से पुढविकाइए कण्हलेरसेहिंतो पुढविकाइएहिंतो जाव अंत करेइ एवं खलु अज्जो ! नीललेस्से पुढविकाइए जाव अंतं करेइ, एवं काउलेस्से वि, जहा पुढविकाइए एवं आउकाइए वि, एवं वणस्सइकाइए वि सञ्चणं एसमट्ठे - भग० श १८ । ३ । प्र १ से ३ । पृ० ७६६-६७ कापोतलेशी पृथ्वीकायिक जीव कापोतलेशी पृथ्वीकायिक जीव से मरण को प्राप्त होकर तदनन्तर मनुष्य के शरीर को प्राप्त करता है, मनुष्य शरीर को प्राप्त करके केवलज्ञान को प्राप्त करता है तथा केवलबोधि को प्राप्त करने के बाद सिद्ध होता है, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करता है ।
कापोतलेशी अपकायिक जीव कापोतलेशी अपकायिक योनि से मरण को प्राप्त होकर तदनन्तर मनुष्य के शरीर को प्राप्त करता है, मनुष्य शरीर को प्राप्त करके केवलज्ञान की प्राप्त करता है तथा केवलज्ञान को प्राप्त करने के बाद सिद्ध होता है यावत सर्व दुःखों का अन्त करता है ।
कापोतलेशी वनस्पतिकायिक जीव कापोतलेशी वनस्पतिकायिक योनि से भरण को प्राप्त होकर तदनन्तर मनुष्य शरीर को प्राप्त करता है; मनुष्य शरीर को प्राप्त करके केवलज्ञान को प्राप्त करता है तथा केवलज्ञान को प्राप्त करने के बाद सिद्ध होता है, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करता है ।
आर्यों के पूछने पर भगवान महावीर ने भी ( अहंपिणं अजो ! एवमाइक्खामि ) माकंदीपुत्र के उपर्युक्त कथन का समर्थन किया है ।
"Aho Shrutgyanam"