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क्रिया-कोश आरंभेणं, महया विरूव-रूवेहिं पावकम्म-किचहितंजहा–छायणओ लेवणओ संथार-दुवार-पिहणओ। सीतोदए वा परिठ्ठवियपुव्वे भवइ ; अगणिकाए वा उज्जालियपुत्वे भवइ ।।
जे भयंतारो तहप्पगाराई आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा उवागच्छति, उवागच्छित्ता इयराइयरेहिं पाहुडेहिं दुपक्खं ते कम्म सेवेति । अयमाउसो ! महासावज्ज-किरिया वि भवइ ।
-आया० श्र २1 अ २ । उ २ । सू ४१ । पृ० ५५ इस लोक में कई श्रद्धालु गृहस्थ-गृहिणी आदि ऐसे होते हैं जो साधु के आचारगोचर को भली-भाँति नहीं समझते हैं तथा श्रद्धा करके, प्रतीति करके, रुचि करके किसी एक श्रमण के रहने के उद्देश्य से भवन आदि का निर्माण कराते है। तदर्थ पृथ्वी-अपअग्नि-वायु-वनस्पति-त्रसकाय के महान समारम्भ, महान संरंभ, महान आरम्भ से नाना प्रकार के पापकर्म करते है, यथा-छादन करना, लेपन करना, संस्तार (बिछौना) बनाना, द्वार ढकना तथा तद् प्रयोजनार्थ शीतोदक का व्यवहार करना, अग्नि को प्रज्वलित करना।
इस प्रकार समारम्भ आदि से निर्मित घर यदि गृहस्थ साधु को रहने के लिए दे और साधु उसमें रहे तो वह दो ( अशुद्ध) पक्षका सेवन करता है तथा उसको महासावद्यक्रिया लगती है।
'६ अप्पसावज्ज किरिया :--
इह खलु पाईणं वा, पडीणं वा, दाहीणं वा, उदीणं वा, संतेगइया सड्डा भवंति, तंजहा--गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा। तेसिं च णं आयार-गोयरे णो सुणिसंते भवइ, तं सहमाणेहि, तं पत्तियमाणेहिं, तं रोयमाणेहि अप्पणो सअट्ठाए तत्थ तत्थ अगारीहिं अगाराई चेतिताई भवंति, तंजहा–आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा। महया पुढविकाय-समारंभेणं जाव अगणिकाए वा उज्जालियपुग्वे भव।
जे भयंतारो तहप्पगाराई आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा उवागच्छति, उवागच्छित्ता इयराइयरेहिं पाहुडेहिं एगपक्खं ते कम्मं सेवंति, अयसाउसो ! अप्पसावज-किरिया वि भवइ ।
-आया० श्रु२। अ२ 1 उ २ । सू ४२ ! पृ० ५५ इस लोक में कई श्रद्धालु गृहस्थ-गृहिणी आदि ऐसे होते हैं जो साधु के आचारगोचर को भली-भाँति नहीं समझते हैं तथा श्रद्धा करके, प्रतीति करके, रुचि करके अपने रहने के उद्देश्य से भवनादि का निर्माण कराते है ! तदर्थ पृथ्वी-अप्-अग्नि-वायु-वनस्पति
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