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क्रिया - कोश
२३१ वा होज्जा ३, दूसमसुसमाकाले वा होज्जा ४, णो दूसमाकाले होज्जा ५, जो दूसमदूसमाकाले होज्जा ६, संतिभावं पडुब णो सुसमसुसमाकाले होज्जा, जो सुसमाकाले होज्जा, सुसमदूसमाकाले वा होज्जा, दूसमसुसमाकाले वा होज्जा, दूसमाकाले वा होज्जा, णो दूसमदूसमाकाले होज्जा |
-भग० । श २५ । उ ६ । प्र ५२ | पृ० ८७८
(ग) नियंठो सिणाओ य जहा पुलाओ ।
-भग० । श २५ । उ ६ । प्र० ५८ । पृ० ८७६
(घ) सुहुम संपराइओ जहा नियंठो । एवं अहक्खाओ वि ।
भग० । श २५ | उ ७ । प्र २७ । पृ० ८८८ (च) अहवखाए पुच्छा । गोयमा ! एवं अहक्खायसंजए वि जाव - अजहन्नमणुको सेणं अणुत्तर विमाणेसु उववज्जेज्जा ; अत्थेगइए सिज्म, जाव-अतें करे ।
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- भग० श २५ । उ ७ । प्र २६ । पृ०
दुःषमकाल में अंतक्रिया करने वाले मनुष्य दुःषम- सुषम काल में जन्मे हुए होते है क्योंकि दुःषमकाल में जन्मे हुए मनुष्यों को यथाख्यातचारित्र नहीं आता है । किन्तु दुःषमसुषमकाल में जन्मे हुए मनुष्य उस काल में या दुःषमकाल में प्रत्रजित होकर यथाख्यातचारित्र प्राप्त कर सकते हैं । यथाख्यातचारित्र को प्राप्त किये बिना कोई भी जीव सिद्धबुद्ध-मुक्त नहीं होता है यावत् सर्व दुःखों का अंत नहीं करता है । अतः दुःषमकाल में जन्मे हुए मनुष्य सिद्ध-बुद्ध-मुक्त नहीं होते हैं यावत् सर्व दुःखों का अंत नहीं कर सकते हैं ।
'७३.१३ ११ आचार्य उपाध्याय कितने भव में अन्तक्रिया करते हैं :
आयरिय उवज्झाए णं भंते! सविसयंसि गणं अगिलाए संगिण्हमाणे, अगिलाए उवगिण्हमाणे करहिं भवग्गहणेहिं सिज्झर जाव अंतं करेइ ? गोयमा ! अत्थे तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइ, अत्थेगइए दोच्चेण भवग्गहणेणं सिज्मर, तच पुण्ण भवग्गहणं णाइक्कमइ ।
- भग० श ५। उ ६ । प्र १७ । पृ० ४८२
टीका - द्वितीयः, तृतीयश्च भवो मनुष्यभवो देवभवाऽन्तरितो दृश्यः, चारित्रवतोऽनन्तरो देवभव एव भवति, न च तत्र सिद्धिरस्ति इति ।
अथवा सूत्र तथा अर्थ के अग्लान भाव से सहायता
अपने विषय में अर्थात् आधाकर्मादि आचार के विषय में विषय में शिष्य वर्ग को अग्लान भाव से स्वीकार करने वाले, करने वाले आचार्य और उपाध्याय कितने ही उसी भव में सिद्ध भव में सिद्ध होते हैं किन्तु तीसरे भव ग्रहण की कोई भी अतिक्रमण नहीं करते हैं अर्थात् तीसरे भव में अवश्य सिद्ध होते हैं यावत् सर्व दुःखों का अंत करते हैं ।
होते हैं, कितने ही दूसरे
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