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क्रिया - कोश
बहूहिं असम्भावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेहिं य अप्पाणं च परं च तदुभयं च बुग्गामाणा वुप्पाएमाणा विहरित्ता, बहूई वासाई सामण्णपरियागं पाडणंति ।
पाणिता कालमासे कालं किश्वा, उक्कोसेणं उवरिमेसु गेवेज्जेसु देवत्ताए उवभत्तारो भवंति । तर्हि तेसिं गई एकतीसं सागरोवमाई ठिई । परलोगस्स अणाराहगा । सेसं तं चैव । -उव० सू ४१ । उपस् १६ / पृ० ३३, ३४ ये जो ग्रामादि में निह्नव होते हैं-यथा १ - बहुरत, २ - जीवप्रादेशिक, ३अव्यक्तिक, ४-सामुच्छेदिक, ५ – द्वैक्रिया ( एक समय में दो क्रिया का अनुभव मानने वाले ) ६ त्रैराशिक तथा ७ – अबद्धिक ।
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'ये सात प्रवचन के अपलापक, चर्या और लिंग की अपेक्षा से साधु के तुल्य — किन्तु मिथ्यादृष्टि बहुत-से असद्भाव के उत्पादन और मिथ्यात्व के अभिनिवेश के द्वारा स्वयं को, दूसरों को और स्व-पर को झूठे आग्रह में लगाते हुए --असत् आशय में दृढ़ बनाते हुए, बहुत वर्षों तक साधु अवस्था में रहते है ।
फिर काल के समय में काल करके, उत्कृष्ट ऊपरी ग्रैवेयक में देवरूप से उत्पन्न होते हैं । वहाँ एकतीस सागरोपम की स्थिति होती हैं । वे परलोक के अनाराधक होते हैं ।
*६६*१७ निश्चयनय और दो क्रियावाद :
जदि पोग्गलकम्ममिणं कुव्वदि तं चैव वेदयदि आदा । दोकिरियावादित्तं पसजदि सो जिणावभदं ॥ जम्हा दु अत्तभावं पोग्गलभावं च दोवि कुव्वंति । तेण दु मिच्छादिट्ठी दोकिरियावादिणो होंति ।
-समय० मा ८५, ८६ । पृ० ७४-७५ व्यवहार नयवादी मानता है कि आत्मा ही अनेकविध पुद्गल कर्मों की प्रायोगिक उत्पत्ति करती है तथा आत्मा ही पुद्गल कर्मों का अनेक विध वेदना करती है । निश्चय नय इस मत के खण्डन में कहता है कि यदि आत्म-प्रयोग से ही पुद्गल कर्मों की उत्पति होती है तथा आत्मा के द्वारा ही उनका वेदन होता है, तो ऐक ही कारण से दो भिन्न फलों को मानने वाला यह दो क्रियावाद जिनमत का विरोधी है ।
एक ही कारण से आत्मभाव का परिणमन और पुद्गल भाव का परिणमन -- दोनों भावों का परिणमन होता है ऐसा मानने वाला दो क्रियावादी मिथ्यादृष्टि होता है ।
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