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क्रिया - कोश
परदारसेवणं वा सपरिग्गहपाचकम्मकरणं वि णत्थि किंचि ण रश्यतिरियमणुयाणजोणीण देवलोओ वा अस्थि ण य अत्थि सिद्धिगमणं अम्मापियरो णत्थि ण वि अस्थि पुरिसकारो पञ्चकखाणमवि णत्थि ण वि अस्थि कालमच्चू य अरिहंता चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेवा णत्थि, णेवत्थि के रिसओ धम्माधम्मफलं य ण वि अस्थि किंचि बहुयं य थोवयं वा, तम्हा एवं विजाणिऊण जहा सुबहु इंदियाणुकूलेसु सविसएस वट्टर णत्थि काइ किरिया वा अकिरिया वा एवं भणंति णत्थिवाइणो वामलोयवाई |
- पण्डा० अ २ । सु ७ । पृ० १२०६ वामलोकवादियों का मत है कि जीव नहीं है, वह इस इहलोक और परलोक में नहीं जाता है, वह पुण्य-पाप का कुछ भी स्पर्श नहीं करता है अतः सुकृत और दुष्कृत का फल नहीं है । यह शरीर पाँच महाभूतों— पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से बना हुआ है और वायु के संबंध से यह शरीर सब कुछ करता है । यह जीव पाँच स्कंधात्मक है । मन को ही जीव मानने वाले मन को ही जीव कहते हैं । कितनेक कहते हैं कि वायु उच्छ्वास रूप वायु हो जीव है । शरीर सादि और विनाशशील है । यह एक ही भव है अतः शरीर के विनाश से सबका विनाश हो जाता है । अतः दान, व्रत, पौषध, तप, संयम, ब्रह्मचर्य आदि कल्याणकारी शुभ क्रियाओं का फल नहीं है । प्राणवध, मिथ्याकथन, चोरी करना, परस्त्री सेवन करना, परिग्रह रखना आदि किसी भी पाप कर्म का कुछ भी बुरा फल नहीं होता है । नरक-तिर्यच मनुष्य की योनि नहीं है, देवलोक, सिद्धगति, माता-पिता, पुरुषार्थ, पच्चक्खाण, काल से मृत्यु का होना, अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव नहीं हैं । कोई भी सुनि नहीं है, धर्म-अधर्म का थोड़ा या बहुत कुछ भी फल नहीं है अतः इन्द्रियों के अनुकूल सब विषयों में अपनी इच्छानुसार सम्यग् प्रकार प्रवृत्ति करनी चाहिए ।
• ०४ सविशेषण - ससमास - सप्रत्यय 'किरिया' शब्द और उनकी परिभाषा :
०४५३ सन्भावकिरिया - सद्भाव क्रिया ।
- षट्० पु १३ । पृ० ४३ ५ । ४ । १३-१४ धवला टीका - जीवदव्वस्स णाण- दंसणेहि परिणामी सम्भाव
किरिया !
द्रव्य का जो सद्भाव - परिणमन होता है वह स्वभाव क्रिया है । यथा— जीव द्रव्य का ज्ञान, दर्शन आदि रूप से होने वाला परिणमन उसकी सद्भाव किया है ।
०४५४ सम्भावकिरियाणिफण्णाणि - सद्भाव क्रिया निष्पन्नानि ।
णाम ।
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- षट् पु १३ | पृ० ४३ ५।४ । १४ – जाणि दव्वाणि सम्भावकिरियाणिफण्णाणि तं सव्वं दव्वकम्मं
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