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राजबन्द्र और उनका संक्षिप्त परिचय
मणिलाल रेवाशंकर सवेरीकी देखरेख में अपनी सेवा बजा रहा है। इस मण्डलने दिगम्बर और श्वेताम्बर शास्त्रोंके उबारके लिये जो प्रयत्न किया है, और वर्तमानमें कर रहा है, उससे जैन समाज काफी परिनित है। यह मण्डल भी श्रीमद् राजचन्द्रका अमुक अंशमैं एक जीवंतरूप कहा जा सकता है। तत्वज्ञानका रहस्य
प्रत्येक मनुष्य के जीवनकालमै उत्क्रांति हुआ करती है। बड़े बड़े महान् पुरुषों के जीवन इसी तरह बनते हैं। राजचन्द्रजीके जीवनमें भी महान् उत्क्रांति हुई थी। पहले पहल हम उनका कृष्णभक्तके रूपमें दर्शन करते हैं। तत्पश्चात् वे जैनधर्मकी ओर आकर्षित होते हैं, और स्थानकवासी जैन सम्प्रदायकी मान्यताओंका पालन करते हैं । क्रमशः उनके दृष्टि-बिन्दुमें परिवर्तन होता है, और हम देखते हैं कि जो राजचन्द्र जैनधर्मके प्रति अपना एकान्त आग्रह बतलाते थे वे ही अब कहते है कि 'जैनधर्मके आग्रहसे ही मोक्ष है, इस बातको आत्मा बहुत समयसे भूल गई है; तथा जहाँ कहोंसे भी वैराग्य और उपशम प्राप्त हो सके, वह मे प्राप्त करना चाहिये। इसके कुछ समय बीतनेके पश्चात् तो हम राजचन्द्रजीको और भी आगे बढ़े हुए देखते हैं। भागवतकी आख्यायिका पढ़कर वे आनन्दसे उन्मत्त हो जाते हैं, और हरि दर्शनके लिये अत्यंत आतुर दिखाई देते हैं-यहाँ तक कि इसके बिना उन्हें खाना, पीना, उठना, बैठना कुछ भी अच्छा नहीं लगता, और वे अपना भी भान भूल जाते हैं । तात्पर्य यह है कि राजचन्द्रजीको जहाँ कहींसे भी जो उत्तम वस्तु मिली, उन्होंने उसे वहींसे ग्रहण किया-उनको अपने और परायेका जरा भी आग्रह न था। सचमुच राजचन्द्रजीके जीवनकी यह बड़ी विशेषता थी। संतकवि आनन्दघनजीके शब्दों में राजचन्द्रजीका कथन था:
दरसन ज्ञान चरण थकी अलख स्वरूप अनेक रे।
निरविकल्प रस पीजिये शुद्ध निरंजन एकरे ॥ राजचन्द्रजीने इस निर्विकल्प रसका पान किया था । उपनिषदोंके शन्दोंमें उनकी दृढ मान्यती थी:
यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय ।
तथा विद्वान्नामरूपाद्विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यं ।। जैसे भिन्न भिन्न नदियाँ अपना नामरूप छोरकर अन्तमें जाकर एक समुद्र में प्रविष्ट हो जाती है, उसी तरह विद्वान् नामरूपसे मुक्त होकर दिव्य परमपुरुषको प्राप्त करता है। अतएव जो संसारमें भिन्न भिन्न मत
और दर्शन देखने में आने हैं, वे सब भिन्न भिन्न देश काल आदिके अनुसार लोगों की भिन्न मिन रुचिके कारण ही उद्धृत हुए हैं। 'हजारों क्रियाओं और हजारों शास्त्रोंका उपदेश एक उसी आत्मतत्त्वको प्राप्त करनेका है, और वही सब धर्मोंका मूल है'। जिसको अनुभवशान हो गया है, वह षट्दर्शनके वाद-विवादसे दूर ही रहता है । राजचन्द्रजी तो स्पष्ट लिख गये हैं:
जे गायो ते सघळे एक सकल दर्शने एज विवेक।
समजाव्यानी शैली करी स्याद्वाद समजण पण खरी ।। -अर्थात् जो गाया गया है वह सबमें एक ही है, और समस्त दर्शनों में यही विवेक है। समस्त दर्शन समझानेकी भिन्न भिन्न शैलियाँ हैं। इनमें स्याद्वाद भी एक शैली है।
निस्सन्देह राजचन्द्र एक पहुँचे हुए उथ कोटिके संत थे। वे किसी वादे नहीं थे, और न वे बादेसे कल्याण मानते थे। सचमुच वे जैनधर्मकी ही नहीं, वरन् भारतवर्षकी एक महान् विभूति थे।
दुविलीयाग, वरदेव कन्याई }
जगदीशचंद्र