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- जिवन्द्रजीकी सेवाये
समय नहीं । तुम पुरुषार्य करना।' गतके अढाई बजे उगे अस्पत सरदी हुई। उस समय उगोंने कहा, 'निश्चित रहना । भाईकी समाधि मृत्यु है।' उपाय करनेपर सरदी दूर हो गई । सबेरे पौने भारपणे उन्हें दूध दिया। उनके मन, वचन और काय बिलकुल सम्पूर्ण शुदिमें थे । पौने नौ बजे उन्होंने कहा'मनसुख ! दुःखी न होना । मांको ठीक रखना । मैं अपने आत्मस्वरूपमें लीन होता है। (उनके कहनेसे उन्ने दूसरे कोचपर लिटाया, वहाँ) वह पवित्र देह और आत्मा समाधिस्थ भावसे छूट गये। लेशमात्र भी आत्माके छूट जानके चिह मालूम न हुए । लघुशंका, दीर्घशंका, मुँहमें पानी, आँखमें पानी अथवा पसीना कुछ भी न था।" इस तरह संवत् १९५७ में चैत्रवदी ५ मंगलवार दोपहरके दो बजे राजकोटमें रामचन्द्रजीने इस नाशमान शरीरका त्याग किया। उस समय राजचन्द्रजीका समस्त कुटुम्ब तथा गुजरात काठियावादके बहुतसे मुमुक्षु वहाँ उपस्थित थे। राजचन्द्रजीकी सेवायें
यद्यपि गजचन्द्र इस समय अपनी देहसे मौजूद नहीं है, परन्तु वे परोक्षरूपसे बहुत कुछ छोड़ गये हैं। उनके पत्र-साहित्यमें उनका मृर्तिमानरूप जगह जगह दृष्टिगोचर होता है। गांधीजीके शब्दों में "उनके लेखोंमें सत् नितर रहा है। उन्होंने जो कुछ स्वयं अनुभव किया वही लिखा है । उसमें कहीं भी कृत्रिमता नहीं । दूसरेके ऊपर छाप डालनेके लिये एक लाइन भी उन्होंने लिखी हो, यह मैंने नहीं देखा।" निम्नलिखित कुछ उद्धरण गांधीजीके उक्त वाक्योंकी साक्षी देने के लिये पर्याप्त है:
"हे जीव ! तू भ्रममे मत पक; तुसे हितकी बात कहता हूँ। सुख तो तेरे अन्तरमें ही है, वह बाहर ढूँढनेसे नहीं मिलेगा।
अंतरमें सुख है। बाहर नहीं। तुझे सत्य कहता हूँ। हे जीव ! भूल मत, तुझे सत्य कहता हूँ।
सुख अंतरम ही है, वह बाहर हूँढनेसे नहीं मिलेगा। हे जीव ! तू भूल मत । कभी कभी उपयोग चूककर किसीके रंजन करनेमें, किसीके द्वारा रंजित होनेमें, अथवा मनकी निर्बलताके कारण दुसरेके पास जो तू मंद हो जाता है, यह तेरी भूल है। उसे न कर।
संतोषवाला जीव सदा सुखी, तृष्णावाला जीव सदा मिखारी ।" इत्यादि अन्तस्तलस्पची हार्दिक उदारोंसे राजचन्द्रजीका वचनामृत भरा पड़ा है।
स्वयं महात्मा गांधीके जीवनपर जो राजचन्द्रजीकी छार पड़ी है, उसे उन्होंने अनेक स्थलोपर स्वीकार किया है। एक जगह गांधीजीने अपनी आत्मकथाम लिखा है-" इसके बाद कितने ही धर्माचार्योंके सम्पर्कमें मैं आया हूँ. प्रत्येक धर्मके आचार्योसे मिलनेका मैंने प्रयत्न किया है, पर जो छाप मेरे दिलपर रायचंदभाईको पड़ी है, वह किसीकी न पड़ सकी। उनकी कितनी ही बातें मेरे ठेठ अन्तस्तलतक पहुँच जाती। उनकी बुद्धिको मैं आदरकी दृष्सेि देखता था। उनकी प्रामाणिकतार भी मेरा उतना ही आदरभाव था। और इससे मैं जानता था कि वे मुझे जान बूलकर उल्टे रास्ते नहीं ले जायेंगे, एव मुझे वही बात कहेंगे जिसे वे अपने जीमें ठीक समझते होंगे। इस कारण मैं अपनी आध्यात्मिक कठिनाइयों में उनका आश्रय लेता।" "मेरे जीवनपर तीन पुरुषोंने गहरी छाप डाली है। टाल्सटाय, रस्किन भार रायचंदभाई । टाल्स्यायकी उनकी अमुक पुस्तकद्वारा और उनके साथ थोड़े पत्र-व्यवहारसे, रस्किनकी उनकी एक ही पुस्तक 'अन्दु दिस लास्ट 'से-जिसका गुजराती नाम मैंने सर्वोदय रक्खा है-और रायचंदभाईकी उनके साथ गार परिचयसे । हिंदुधर्ममें जब मुझे शंका पैदा हुई तब उसके निवारण करने में मदद करनेवाले रायचंदभाई थे।" राजचन्द्रजी गुजरात काठियावादमें मुमुक्षु बोगोंका एक वर्ग भी तैयार कर गये है, जिसमें जैन सम्प्रदायके तीनों फिरकोंके लोग शामिल हैं। इन लोगों में जो कुछ भी विचारसहिष्णुता और मध्यस्थभाव देखने में माता है, उसे रामचन्द्रजीकी सतकपाका ही फल समझना चाहिये । इसके अतिरिक्त राजचन्द्र अपनी मौजूदगीमें जैन ग्रंथों के उबारके सिवे परमभुतप्रभावकमन्डलकी भी स्थापना कर गये है। यह मण्डल आजकल रेवाशंकर जगजीवनदास सवेरीके योग्य कमाइबर