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राजवन्द्र और उनका संक्षिप्त परिचय जीवको भड़का रक्खा है। जीवको पुरुषार्थ करना नहीं, और उसको लेकर बहाना ढूँढना है । आत्मा पुरुषार्थ करे तो क्या नहीं हो सकता है इसने बड़े बड़े पर्वतके पर्वत काट डाले है; और कैसे विचार कर उनको रेलवेके काममें लिया है। यह तो केवल बाहरका काम है, फिर भी विजय प्राप्त की है। आस्माका विचार करना, यह कुछ बाहरकी बात नहीं। दो घदी पुरुषार्थ करे तो केवलज्ञान हो जाय-ऐसा कहा है। रेलवे इत्यादि चाहे कैसा भी पुरुषार्थ क्यों न करें, तो भी दो घडीमें तैय्यार नहीं होती, तो फिर केवलशान कितना सरल है, इसका विचार तो करो। अत्यंत त्वरासे प्रवास
ऊपर आ चुका है कि राजचन्द्र संसारके नाना मतमतांतरेस बहुत दुःखी थे। वे अनुभव करते थे कि 'समस्त जगत् मतमतांत से ग्रस्त है; जनसमुदायकी वृत्तियाँ विषय कषाय आदिसे विषम हो गई हैं; राजसी वृत्तिका अनुकरण लोगों को प्रिय हो गया है, विवेकियोंकी और यथायोग्य उपशम-पात्रोंकी कायातक भी नहीं मिलती: निष्कपटीपना मनष्योंमेंसे मानो चला ही गया है: सन्मार्गके अंशका शतांश भी कहीं भी दृष्टि नहीं पड़ता; और केवलज्ञानका मार्ग तो सर्वथा विसर्जित ही हो गया है। यह सब देखकर राजचन्द्रजीको अत्यंत उद्वेग हो आता था, और उनकी आँखोंमें आँसू आ जाते थे । वे बहुत बार कहा करते थे कि " चारों ओरसे कोई बरछियाँ भोंक दे तो वह मैं सह सकता हूँ, परन्तु जगत्में जो अठ, पाखंड और अत्याचार चल रहा है, धर्म नामपर जो अधर्म चल रहा है, उसकी बरछी सहन नहीं हो सकती। उन्हें समस्त जगत अपने सगेके समान था। अपने भाई अथवा बहनको मरते देखकर जो केश अपनको होता है, उतना ही क्लेश उनै जगत्में दुःखको-मरणको-देखकर होता था"।
इस तरह एक ओर तो राजचन्द्रजी संसार-तापसे संतप्त थे, और दूसरी ओर उनै व्यापारकी अत्यंत प्रबलता थी। इससे राजचन्द्रजीको अत्यंत शारीरिक और मानसिक भम उठाना पड़ा। उनका स्वास्थ्य दिन पर दिन बिगडताही गया। स्वास्थ्य सुधारने के लिये राजचन्द्रजीको घरमपुर, अहमदाबाद, बढ़वाण कैम्प और राजकोट रक्खा गया. उन्हें रोगमुक्त करनेके लिये विविध प्रकारके उपचार आदि किये गये, पर सब कुछ निष्फल हुआ। कालको राजचन्द्र जैसे अमोल रत्नोंका जीवन प्रिय न हुआ, और उन्हें इस नश्वर देहको छोड़ना पड़ा । कहते है कि संवत् १९५६ में राजचन्द्रजीने व्यवहारोपाधिसे निवृत्ति लेकर स्त्री और लक्ष्मीका त्याग कर, अपनी माताजीकी आशा मिलनेपर, संन्यास ग्रहण करनेकी तैय्यारी भी कर ली थी। पर "बहुत स्वरासे प्रवास पूरा करना था; बीचमें सेहराका मरुस्थल आ गया । सिरपर बहुत बोझा था, उसे आत्मवीर्यसे जिस तरह अल्पकालमें वेदन कर लिया जाय, उस तरह व्यवस्था करते हुए पैरोंने निकाचित उदयमान विश्राम ग्रहण किया। " राजचन्द्रजीकी आत्मा इस विनश्वर शरीरको छोड़कर कूच कर गई । मृत्युसमय राजचन्द्रजीका वजन १३२ पौडसे घटकर कुल ४३-४४ पौड रह गया था। उन्होंने मृत्युके कुछ दिन पहले जो काव्य रचा था, वह 'तिम संदेश के नामसे प्रस्तुत ग्रंथमें पृ८०२ पर दिया गया है।
श्रीमद्के लघुभ्राता श्रीयुत मनसुखभाईने राजचन्द्रजीकी अंतिम अवस्थाका वर्णन निम्न शब्दों में किया है-“देहत्यागके पहले दिन सायंकालको उन्होंने रेवाशंकर भाई, नरमेराम तथा मुझे कहा-'तुम निचित रहना । यह आत्मा शाश्वत है। अवश्य विशेष उत्तम गतिको प्राप्त होनेवाली है। तुम शांत और समाधिभावसे वर्तन करना। जो रत्नमय शान-वाणी इस देहद्वारा कही जा सकती, उसके कहनेका
१ गांधाजीका संवत् १९७८ में अहमदाबादमें दिया हुआ व्याख्यान. .
२ राजचन्द्रजीके देशोत्सर्गके विषयमें अहमदाबाद जयन्तीपर गांधीजीने जो उद्वार प्रकट किये है, वे ध्यान देने योग्य :
रायचंदभाईनो देह एटली नानी उमरे पी गयो तेनुं कारण मने एज लागे छे। तेमने दरद हवं ए खरं, पण जगतना तापन जे दरद तेमने हतुं ते असा हतुं । पेटु शारीरिक दरद तो जो एकलु होत तो जरूर तेओ तेने जीती शक्या होत । पण तेमने थयु के भावा विषम काळमा मात्मदर्शन केम यई शके १ दयाधर्मनी एलिशानी थे।