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राजवन्द गौर उनका संक्षित परिचय
क्रियोत्यापक कहा, पर राजचन्द्र तो इन सब विरोधोंकी जरा भी परवाहन करके एकाप्रयोगसे निज लक्ष्यकी भोर अग्रेसर ही होते गये। आगे बढ़कर पीछे हटना तो उन आता ही न था। राजचन्द्रजीमें धर्म और व्यवहारका बहुत सुन्दर मेल था-उन्होंने प्रवृत्ति-निवृत्तिका सुन्दर समन्वय किया था। वे एक बड़े भारी व्यापारी होकर भी सत्यतापूर्वक ही अपना व्यापार चलाते थे। व्यापारके उनाने अनेक नियम बाँधे थे। वे तदनुसार ही अपना कारोबार करते थे। निस्सन्देह इतनी बड़ी व्यापारोपाधिमें रहते हुए आत्मचिंतनकी इतनी उच्च दशाको प्राप्त साधक पुरुष इनगिने ही निकलेंगे। राजचन्द्र शुष्कज्ञानकी तस क्रियाजवताका भी निषेध करते थे। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि बाह्य क्रियाओं को ही वे न मानते थे। उन्होंने शान और चारित्रका, धर्म और व्यवहारका अपने जीवन में समुचित समन्वय किया था। समाज-सुधार
राजचन्द्रजीकी दूसरी असाधारण बात यह थी कि तस्वशानी होनेके साथ वे एक उग्र सुधारक भी थे। नीनीतिबोधकी अर्पणपत्रिका राजचन्द्रजीने एक पद्य निम्न प्रकारसे लिखा है:
बहु हर्ष छ देश सुधारवामां बहु हर्ष छ सुनीति धारवामां ।
पणा सद्गुगो जोईने मोह पामुं वधुं शं यदु हुं मुखेथी नकार्नु । इस परसे मालूम होता है कि राजचन्द्रजीको देशोन्नति के कार्यो में भी बहुत रुचि थी, और इसी कारण उन्होंने स्त्रियोपयोगी, कलाकौशल आदिको प्रोत्साहित करनेसंबंधी, श्रीमंत लोगोंके कर्तव्यसंबंधी आदि देश मौर समाजोन्नतिविषयक अनेक काव्य आदिकी रचना की थी। वे स्वयं श्रीमंत और धीमंत लोगें.की एक महान् समाजकी स्थापना करना चाहते थे। 'श्रीमंत जनोने शिखामण' नामक कायमै राजचन्द्रजीने भीमतोंको शिक्षा देते हुए "पुनर्लन यवा करो ठामे ठाम प्रयत्न" लिखकर स्पष्टरूपसे पुनर्लगका भी समर्थन किया है। जैन साधु-संस्थाकी अधोगति देखकर तो उने अत्यन्त दया आती थी। वे कहा करते थे कि 'सचा गुरुवही हो सकता है जिसका प्रषि-भेद हो गया है। जो लोग मोहगर्मित अथवा दुःखगभिंत वैराग्यसे दीक्षा ले लेते हैं, ऐसे साधु पूजनीय नहीं है।' उन्होंने यहाँतक लिख दिया है कि 'आजकलके जैन साधुओंके मुंहसे खूब भवण करना भी योग्य नहीं। तथा हाळमें जैनधर्मके जितने साधु फिरते है, उन सभीको समकिती नहीं समझना, उन दान देनेमै हानि नहीं है, परन्तु वे हमारा कल्याण नहीं कर सकते वेश कल्याण नहीं करता। जो साधु केवल बामक्रियायें किया करता है, उसमें शान नहीं । शान तो वह है जिससे पास कृतियाँ रुक जाती है-संसारपरसे सभी प्रीति घट जाती है-जीव सच्चेको सच्चा समझने बगता है। जिससे आत्मामै गुण प्रकटतो वह ज्ञान । 'इससे मालूम होता है कि राजचन्द्र आजकलकी साधुसंस्थामें भी क्रांति करना चाहते थे। बीरचंद राघवजी गांधीको चिकागोकी सर्व धर्मपरिषदमे न भेजनेक संबंध जब जैन समाजमें बड़ी भारी खलबली मची थी, उस समय भी राजचन्द्रजीने बहुत निर्भयतापूर्वक खूब जोरदार शब्दोंमें अपना अभिमत प्रकट किया था। उनके शब्द निम प्रकारसे हैं:-"धर्मका लौकिक बड़प्पन, मान-महस्वकी इच्छा, यह धर्मका द्रोहरूप है। धर्मके बहाने अनार्य देशमै जाने अथवा सूत्र आदि मेजनका निषेध करनेवाले-नगारा बजाकर निषेध करनेवाले–जहाँ अपने मान-महस्व बाप्पानका सवाल भाता है, वहाँ इसी धर्मको ठोकर मारकर, इसी धर्मपर पैर रखकर इसी निषेधका निषेध करते हैं, यह धर्मद्रोहही है। उनै धर्मका महत्व तो केवल बहानेरूप है, और स्वार्थसंबंधी मान आदिका सवाल ही मुख्य सवाल है-यह धर्मद्रोह ही है। परिचंद गांधीको विलायत भेजने आदिके विषयमे ऐसा ही हुआ है। जब धर्म ही मुख्य रंग हो तब अहोभाग्य!" .
ही वनस्पतिको सुखाकर खानाले मौर समझे बिना प्रतिक्रमण करनेवाले लोगोंका भी राजचनाजीने सूर हास्ययुक चित्रण किया है, जो पहले आ चुका है, इसी तरहइनॉक्युलेशन (महामारीका
का) मादिर प्रवाओंका भी राजचमार्जीने घोर विरोध करके अपनी समाज-सुधारक लोकोपकारक राधिका परिचय दिया है।