________________
अहिंसा
अहिंसा
__ जैनधर्मके अहिंसा तत्वको राजचन्द्रजीने ठीक ठीक समझा था; और इतना ही नहीं, उनाने इस तत्वको अपने जीवनमें उतारा था। उनकी हा मान्यता थी हरिदर्शनका मार्ग-आत्मचिंतनका मार्गशूरवीरोंका मार्ग है, इसमें कायर लोगोंका काम नहीं है। इस संबंधौ गांधीजीके २७ प्रभोंका उत्तर देते समय राजचन्द्रजीने जो उनके अन्तिम प्रश्नका उत्तर लिखा है, वह पढ़ने योग्य है:
"प्रश्न:- यदि मुझे सर्प काटने आवे तो उस समय मुझे काटने देना चाहिये या उसे मार डालना चाहिये ? यहाँ ऐसा मान लेते हैं कि उसे किसी दूसरी तरह हटानेकी मुझमें शक्ति नहीं है।
उत्तर:--सर्पको तुम्हें काटने देना चाहिये, यह काम बतानेके पहिले तो कुछ सोचना पड़ता है, फिर भी यदि तुमने यह जान लिया हो कि देह अनित्य है, तो फिर इस असारभूत देहकी रक्षाके लिये, जिसको उसमें प्रीति है, ऐसे सर्पको मारना तुम्हें कैसे योग्य हो सकता है ? जिसे आत्म-हितकी चाहना है, उसे तो फिर अपनी देहको छोड़ देना ही योग्य है । कदाचित् यदि किसीको आत्म-हितकी इच्छा न हो तो उसे क्या करना चाहिये ! तो इसका उत्तर यही दिया जा सकता है कि उसे नरक आदिमें परिभ्रमण करना चाहिये; अर्थात् सर्पको मार देना चाहिये । परन्तु ऐसा उपदेश हम कैसे कर सकते हैं? यदि अनार्यवृत्ति हो तो उसे मारनेका उपदेश किया जाय; परन्तु वह तो हमें और तुम्हें स्वप्नमें भी न हो यही इच्छा करना योग्य है।"
भले ही अहिंसाका यह स्वरूप वैयक्तिक कहा जा सकता हो, परन्तु कहना पड़ेगा कि राजचन्द्रजीके जीवनमें अहिंसाका बहुत उच्च स्थान था। इस संबंधौ ‘क्या भारतवर्षकी अधोगति जैनधर्मसे हुई है?' इस विषयपर जो राजचन्द्रजीका गुजरातके साक्षर महीपत रामरूपरामके साथ प्रश्नोत्तर हुआ है, वह भी ध्यानसे पढ़ने योग्य है। सत्यशोधन
राजचन्द्रजीके जीवनमें सत्यशोधनके लिये-जीवनशोधनके लिये-आदिसे लगाकर अंततक अखंड मंथन चला है, जो उनके लेखोंसे जगह जगह स्पष्ट मालूम होता है । एक ओर तो गृहस्थाश्रममें रहकर अपने कुटुम्बका पालन-पोषण और व्यापारकी महान् उपाधि, और दूसरी ओर आत्मसाक्षात्कारकी अत्यंत प्रबल भावना-इन दोनों बातोंका मेल करनेके लिये समन्वय करनेके लिये-राजचन्द्रजीको आकाशपाताल एक करना पड़ा है। पद पदपर व्यवहारोपाधि उनके मार्गमें आकर खदी हो जाती है-उनें आगे बढ़ने से इन्कार करती है। पर राजचन्द्र तो अपने प्राणों को हथेली में रखकर' निकले हैं, और वे 'उपाधिकी भीद'को चीरकर आगे फंसते ही चले जाते हैं। जैन समाजके कतिपय गृहस्थ और साधुओंने उनका घोर विरोध किया; उनके साहित्यको न पढ़नेकी प्रतिज्ञा ली; जिस रास्तेसे वे जाते हो, उस ओर न देखने तकका प्रण किया; किसीने उन्हें दंभी कहा, किसीने उत्सूत्रभाषी, किसीने अहंकारी, और किसीने निवृत्त होता तो बहुत उपयोगी होता । अच्छा, तुम्हें उसके लिये जो इतनी अधिक श्रद्धा रहती है, उसका क्या कुछ मूल कारण मालूम हुआ है ? इसके ऊपर की हुई श्रद्धा, और उसका कहा हुआ धर्म अनुभव करनेपर अनर्थकारक तो नहीं लगता है न ? अर्थात् अभी उसकी पूर्ण कसौटी करना, और ऐसा करनेमें वह प्रसन्न है।" "अब अन्तकी निर्विकल्प समाधि पाना ही बाकी रही है, जो सुलभ है, और उसके पानेका हेतु भी यही है कि किसी भी प्रकारसे अमृत-सागरका अवलोकन करते हुए योगीसी भी मायाका आवरण बाधा न पहुँचा सके, अवलोकन सुखका किंचिन्मात्र भी विस्मरण न हो जाय; एक तूही तूके विना दूसरी रटन न रहे; और मायामय किसी भी भयका, मोहका, संकल्प और विकल्पका एक भी अंश बाकी न रह जाय ।" " यथायोग्य दशाका अभी मैं मुमुक्षु हूँ। कितनी ही प्राति है, परन्तु सर्वपूर्णता प्राप्त हुए बिना इस जीवको शांति मिले ऐसी दशा जान नहीं पड़ती।" " अभी हमारी प्रसमता अपने ऊपर नहीं है, क्योंकि जैसी चाहिये वैसी असंगवशासे वर्तन नहीं होता, और मिया प्रबंधी बात है।"