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मात्मसिद्धि
हो सकता है-इसमें कुछ भी भेद नहीं । मोक्षमें ऊँच नीचका कोई भी मेद नहीं; जो उसकी साधना करता है, वह उसे पाता है।
अन्तमें प्रत्यकार उपसंहार करते हुए लिखते हैं:आत्मभ्रांतिसम रोग नहीं सगुरू वैद्य सुजान । गुरुआशासम पथ्य नहीं औषध विचार ध्यान । जो इन्छो परमार्थ तो करो सत्य पुरुषार्थ । भवस्थिति आदि नाम लइ छेदो नहीं आत्मार्थ ॥ गच्छमतनी जे कल्पना ते नहीं सद्व्यवहार । भान नहीं निजरूपर्नु ते निश्चय नहीं सार ।
भागळ शानी थई गया वर्तमाना होय । पाशे काल भविष्यमा मार्गभेद नहीं कोय ॥ -आत्माको जो अपने निजस्वरूपका भान नहीं-इसके समान दूसरा कोई भी रोग नहीं; सद्गुरुके समान उसका कोई भी सचा अथवा निपुण वैद्य नहीं; सद्गुरुकी आशापूर्वक चलनेके समान दूसरा कोई भी पथ्य नहीं; और विचार तथा निदिध्यासनके समान उसकी दूसरी कोई भी औषध नहीं । यदि परमार्थकी इच्छा करते हो तो सच्चा पुरुषार्थ करो, और भवस्थिति आदिका नाम लेकर आत्मार्थका छेदन न करो । गच्छमतकी जो कल्पना है वह सद्व्यवहार नहीं। जीवको अपने स्वरूपका तो भान नहीं-जिस तरह देह अनुभवमें आती है, उस तरह आत्माका अनुभव तो हुआ नहीं बल्कि देहाध्यास ही रहता है-और वह वैराग्य आदि साधनके प्रास किये बिना ही निश्चय निश्चय चिल्लाया करता है, किन्तु वह निश्चय सारभूत नहीं है। भूतकालमें जो शानी-पुरुष हो गये है, वर्तमानकालमें जो मौजूद है, और भविष्यकालमें जो होंगे, उनका किसीका भी मार्ग भिन्न नहीं होता।
आस्मसिद्धिशास्त्रका नाम यथार्थ ही है। इससे राजचन्द्रजीके गंभीर और विशाल चिन्तनकी थाह मिलती है। सौभागभाईने आत्मसिद्धिके विषयमें एक जगह लिखा है:-"उस उत्तमोत्तम शानके विचार करनेसे मन, वचन और काययोग सहज आत्मविचारमें प्रवृत्ति करते थे । बाह्य प्रवृत्ति, मेरी चित्तवृत्ति सहज ही रुक गई-आत्मविचारमें ही रहने लगी । बहुत परिश्रमसे मेरे मन, वचन, काय जो अपूर्व आत्मपदार्थमें परम प्रेमसे स्थिर न रह सके, सो इस शास्त्रके विचारसे सहज स्वभावमें, आत्मविचारमें तथा सद्गुरुचरणमें स्थिरभावसे रहने लगे।"
आत्मसिद्धिके अंग्रेजी, मराठी, संस्कृत और हिन्दी भाषान्तर भी हुए हैं। इसका अंग्रेजी अनुवाद स्वयं गांधीजीने दक्षिण अफ्रिकासे करके श्रीयुत मनसुखराम वजीभाईके पास भेजा था, परन्तु असावधानीसे वह कहीं गुम गया।
इसके बाद, तीसवें वर्ष में राजचन्द्रजी जैनमार्गविवेक, मोक्षसिद्धांत और द्रव्यप्रकाश नामक निबंध भी लिखना चाहते थे। राजचन्द्रजीके ये तीनों लेख ६९४-६४७,९-३० मैं अपूर्णरूपसे दिये गये हैं।
इसके अतिरिक्त राजचन्द्रजीने सद्बोधसूचक प्रास्ताविक कान्य, स्वदेशीओने विनंति (सौराष्ट्रदर्पण अक्टोबर १८८५ में प्रकाशित), श्रीमंतजनोने शिखामण (सौराष्ट्रदर्पण अक्टोबर १८८५), हुनर कला वधारवाविषे (नवम्बर १८८५), आर्यप्रजानी पडती ( विज्ञानविलास अक्टोबर, नवम्बर, दिसम्बर १८८५), शुरवीरस्मरण (बुद्धिप्रकाश दिसम्बर १८८५), खरो श्रीमंत कोण (बुदिप्रकाश दिसम्बर १८८५), वीरस्मरण (बुद्धिप्रकाश),' तथा १६ वर्षसे पूर्व और अवधानमें रचे हुए आदि अनक कायोंकी रचना की है। राजचन्द्रजीने हिन्दीमें भी काव्य लिखे हैं। इनके गुजराती और हिन्दी काव्य प्रस्तुत ग्रंथम अमुक अमुक स्थलोंपर हिन्दी अनुवादसहित दिये गये हैं। इन कायों में 'अपूर्व अवसर एवो क्योर आवशे' आदि काव्य गांधीजीकी आभम-भजनावलिमें भी लिया गया है। राजचन्द्रजीका 'निरखी ने नवयौवना' आदि काव्य भी गांधीजीको बहुत प्रिय है । 'नमिराज' नामका एक स्वतंत्र काव्य-ग्रंथ भी राजचन्द्रजीका बनाया हुआ कहा जाता है। इस काव्यमै पाँच हजार पद्य है, जिने राजचन्द्रजीने कुल छह दिनमें लिखा था। अनुवादात्मक रचनायें
राजचन्द्रजीके अनुवादात्मक प्रयो, कुन्दकुन्दका पंचास्तिकाय और दशवकालिक सूत्रकी कुछ १ये सब काव्य मुले भीयुत दामजी केशवजीकी कपासे देखने को मिले है।