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भावनाबाघ
राजचन्द्रजीका छठा अन्य भावनाबोध है । भावनाबोधकी रचना राजचन्द्रजीने संवत् १९४२ में अठारह वर्षकी अवस्था की थी। जिस समय मोक्षमालाके छपने में विलंब था, उस समय ग्राहकों की आकुलता दूर करनेके लिये भावनाबोधकी रचना कर, यह ग्रंथ ग्राहकोंको उपहारस्वरूप दिया गया था । भावनाबोध अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, संसार, आश्रव, संवर, निर्जरा और लोकस्वरूप इन दस भावनाओंका वर्णन किया गया है। प्रथम ही उपोद्धातके बाद, प्रथम दर्शनमें प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ और पंचम चित्र आदिकी पाँच भावनाओंका; और तत्पश्चात् अंतर्दर्शनमें षष्ठ, सप्तम, अष्टम, नवम और दशम चित्रोंमें अन्तकी पाँच भावनाओंका विवेचन है। उपर्युक्त दस भावनाओंका वर्णन दस चित्रोंमें समाप्त होता है। मोक्षमालाकी तरह भावनाबोधकी कथायें भी अत्यंत रोचक और प्रभावोत्पादक हैं । तत्त्ववेत्ताओंके उपदेशका सार बताते हुए एक जगह राजचन्द्रजी लिखते हैं-" इन तत्त्ववेत्ताओंने संसार-सुखकी हरेक सामग्रीको शोकरूप बताई है। यह उनके अगाध विवेकका परिणाम है। व्यास, वाल्मीकि, शंकर, गौतम, पतंजलि, कपिल और युवराज शुद्धोदनने अपने प्रवचनोंमें मार्मिक रीतिसे और सामान्य रीतिसे जो उपदेश किया है, उसका रहस्य नीचेके शब्दों में कुछ आ जाता है:
___ अहो प्राणियो । संसाररूपी समुद्र अनंत और अपार है। इसका पार पानेके लिये पुरुषार्थका उपयोग करो ! उपयोग करो!"
निस्सन्देह भावनाबोध वैराग्यरसकी एक सुन्दर रचना है, और बारह भावनाओंके चिन्तनके लिये यह बहुत उपयोगी है।
उन्नीस वर्षकी अवस्थामें राजचन्द्रजीने पुष्पमालाके ढंगका १२० वचनोंमें वचनामृत लिखा है। यह वचनामृत प्रस्तुत ग्रंथ, ६-१२१-१९ में दिया गया है। वचनामृतके वचनोंकी मार्मिकताका निम उद्धरणेसि कुछ आभास मिल सकता है
हज़ारों उपदेशोंके वचन सुननेकी अपेक्षा उनमेंसे थोरे वचनोंका विचारना ही विशेष कल्याणकारी है (१०). बर्तावमे बालक बनो, सत्यमें युवा बनो, और शानमें वृद्ध बनो ( १९), बच्चेको रुलाकर भी उसके हाथका संखिया ले लेना (३१). हे जीव ! अब भोगसे शांत हो शांत ! जरा विचार तो सही, इसमें कौनसा सुख है (३४). यदि इतना हो जाय तो मैं मोक्षकी इच्छा न कसैं:-समस्त सृष्टि सत्शीलकी सेवा करे, नियमित आयु, नीरोग शरीर, अचल प्रेम करनेवाली सुन्दर स्त्रियाँ, आशानुवत्ती अनुचर, कुलदीपक पुत्र, जीवनपर्यंत बाल्यावस्था, और आत्मतत्त्वका चिन्तवन (४०). किन्तु ऐसा तो कभी भी होनेवाला नहीं, इसलिये मैं तो मोक्षकी ही इच्छा करता हूँ (१). स्याद्वाद. शैलीसे देखनेपर कोई भी मत असत्य नहीं ठहरता (८६)।
इसके बाद, इसी वर्ष राजचन्द्रजीने जीवतस्वसंबंधी विचार और जीवाजीवविभक्ति नामक प्रकरण भी लिखने आरंभ किये थे। मालूम होता है राजचन्द्रजी इन प्रकरणों को उत्तराध्ययन सूत्र आदि ग्रंथोंके आधारसे लिखना चाहते थे। ये दोनों अपूर्ण प्रकरण क्रमसे १०-१२९-१९ और ११-१३०-१९ में प्रस्तुत प्रथम दिये गये हैं।
बीसवें वर्षमै राजचन्द्रजीने प्रतिमाकी सिद्धिके ऊपर एक निबंध लिखा है। इसमें आगम, इतिहास, परंपरा, अनुभव और प्रमाण इन पाँच प्रमाणोंसे राजचन्द्रजीने प्रतिमापूजनकी सिद्धि करनेका उल्लेख किया है। इस लघुग्रन्थका केवल आदि और अन्तका भाग मिलता है, जो प्रस्तुत ग्रन्थमें २०-१३६,७,८,९-२० में अपूर्णरूपसे दिया है।
आत्मसिद्धिशाल राजचन्द्रजीका प्रौढ अवस्थाका ग्रंथ है। राजचन्द्रजीने इसे २९वें वर्षमै लिखा था। इसे राजचन्द्रजीने खास कर भीसोभाग, भीअचल आदि मुमुक्षु तथा अन्य भव्य जीवोंके हितके लिये नदियादमें रहकर बनाया था। कहते हैं एक दिन शामको राजचन्द्र बाहर घूमने गये और घूमनेसे वापिस आकर ' आत्मासद' लिखने बैठ गये । उस समय श्रीयुत अंबालालमाई उनके साथ थे । इतने राजचन्द्रजीने ग्रंथको लिखकर समास किया, अंबालालभाई लालटेन लेकर खदे हे। बाद में इस ग्रंथकी चार नकले कराकर तीन तो श्रीसोभागभाई, लल्लूजी और माणेकलाल पेलामाईको भेज दी, और एक स्वयं अंबालालभाईको दे दी।