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राजचन्द्र और उनका संक्षिप्त परिचय मोक्षमालाका चौथा भाग काव्यभाग है। इसमें सर्वसामान्य धर्म, भक्तिका उपदेश, ब्रह्मचर्य, सामान्य मनोरथ, तृष्णाकी विचित्रता, अमूल्य तस्त्रविचार, जिनेश्वरकी वाणी और पूर्णमालिका मंगलके अपर मनहर, हरिगीत, त्रोटक आदि विविध छन्दोंमें आठ कवितायें है। अपने सामान्य मनोरथके विषयमें कवि लिखते है:
मोहिनीभाव विचार अधीन यई, ना निरखं नयने परनारी। पत्थरतुल्य गणुं परवेभव, निर्मळ ताविक लोभ समारी। द्वादशवृत्त अने दीनता परि, सात्विक थाऊं स्वरूप विचारी। ए मुज नेम सदा शुभ क्षेमक, नित्य अखंड रहो भवहारी ॥१॥ ते त्रिशलातनये मन चिंतवि, शान विवेक विचार वधारू। नित्य विशोध करी नवतस्वनो, उत्तम बोध अनेक उच्चारू । संशयबीज उगे नहीं अन्दर, जे जिननां कथनो अवधाएं ।
राज्य ! सदा मुज एज मनोरथ, धार यशे अपवर्ग उतारं ॥२॥ सोलह वर्षकी छोटीसी अवस्थामें कितनी उच्च भावनायें!
आगे चलकर ' तृष्णानी विचित्रता' नामक कवितामै कविने वृद्धावस्थाका कितना मार्मिक चित्रण किया है। वह पद्य यह है :
करोचली पडी डाढी डांचातणो दाट वळ्यो, काळी केशपटी विषे श्वेतता छवाई गई। संघवं सांभळवं ने देखq ते मांडी वळ्यु, तेम दांत आवली ते खरी के खवाई गई ॥ वळी केड वांकी हाड गयां, अंगरंग गयो उठवानी आय जतां लाकडी लेवाई गई।
अरे ! राज्यचन्द्र एम युवानी हराई पण, मनथी न तोय रांड ममता मराई गई ॥ २॥ -अर्थात् मुँहपर झुर्रियाँ पड़ गई; गाल पिचक गये; काली केशकी पट्टियाँ सफेद पर गई; सूंघने, सुनने और देखनेकी शक्तियाँ जाती रही और दाँतोंकी पंक्तियाँ खिर गई अथवा घिस गई; कमर टेडी हो गई। हाड़-माँस सूख गये; शरीरका रंग उद गया; उठने बैठनेकी शक्ति जाती रही और चलनेमें लकदी लेनी पड़ गई। अरे राजचन्द्र ! इस तरह युवावस्थासे हाथ धो बैठे। परन्तु फिर भी मनसे यह रॉड ममता नहीं मरी।
इसमें सन्देह नहीं कि मोक्षमाला राजचन्द्रजीकी एक अमर रचना है। इससे उनकी छोटीसी अवस्थाकी विचारशक्ति, लेखनकी मार्मिकता, तर्कपटुता और कवित्वकी प्रतिभाका आभास मिलता है। जैनधर्मके अन्तस्तलमें प्रवेश करनेके लिये यह एक भव्य द्वार है। जैनधर्मके खास खास प्रारंभिक समस्त सिद्धांतोंका इसमें समावेश हो जाता है । यह जैनमात्रके लिये बहुत उपयोगी है । विशेषकर जैन पाठशालाओं आदिमें इसका बहुत अच्छा उपयोग हो सकता है। जैनेतर लोग भी इससे जैनधर्मविषयक साधारण परिचय प्राप्त कर सकते हैं। १ इसमें अखाकी निम कविताकी छाया मालूम होती है:
टूटो तन गात ममता मटी नहीं फुट फजीत पुरानोसो पिंजर । जरजर अंग जुक्यो तन नीचो जैसे ही वृद्ध भयो चले कुंजर। फटेसे नेन दसन बिन बेन ऐसो फवे जेसो उजर खंजर । अज हो सोनारा रामभजनकी भात नाही जोपे आई पोहोच्यो है मंजर ।। यौवन गयो जरा ठन्यो सिर सेत भयो बुध कारेकी कारी। सब आपन्य वटी तन निरत घटी मना न्युं रटी कुलटा जेसी नारी। शान कग्यो सो तो नीर मथ्यो आई अखा शून्यवादीकी गारी। राम न जाने कलीमल साने भये ज्यु पुराने अविष्या कुमारी॥
संतप्रिया ६०-६१७ अखानी वाणी पृ. ११६, बम्बई १८८४.