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मोक्षमाला
" जो निर्धन्य प्रवचनमें आये हुए पवित्र वचनोंको कंठस्थ करते हैं, वे अपने उत्साह के बलसे सफलका उपार्जन करते हैं। परन्तु जिन्होंने उसका मर्म पाया है, उनको तो इससे मुख, आनंद, विवेक और अन्तम महान् फलकी प्राप्ति होती है। अपन पुरुष जितना सुंदर अक्षर और खेंची हुई मिथ्या लकीर इन दोनोंके भेदोंको जानता है, उतना ही मुखपाठी अन्य ग्रंथोंके विचार और निय प्रवचनके भेदको समझता है। क्योंकि उसने अर्थपूर्वक निग्रंथ वचनामृतको धारण नहीं किया, और उसपर यथार्थ विचार नहीं किया। यद्यपि तस्वविचार करने में समर्थ बुद्धि-प्रभावकी आवश्यकता है, तो भी वह कुछ विचार ज़रूर कर सकता है। पत्थर पिघलता नहीं फिर भी पानीसे भीग तो जाता है। इसी तरह जिसने वचनामृत कंठस्थ किया हो, वह अर्थसहित हो तो बहुत उपयोगी हो सकता है। नहीं तो तोतेवाला राम नाम । तोतेको कोई परिचयमें भाकर भले ही सिखला दे, परन्तु तोतेकी बला जाने कि राम अनारको कहते हैं या अंगुरको" (मोक्षमाला पाठ २६)। इसके बाद लेखकने एक उपहासजनक कच्छी-वैश्योंका दृष्टांत लिखा है । ईश्वरकतत्वके संबंधमें श्रीमद् राजचन्द्र लिखते हैं-"जिस मध्यवयके क्षत्रियपुत्रने जगत् अनादि है ऐसे बेधड़क कहकर कर्त्ताको उड़ाया होगा, उस पुरुषने क्या इसे कुछ सर्वशताके गुप्त भेदके बिना किया होगा तथा इनकी निदोषताके विषयमें जब आप पहेंगे तो निश्चयसे ऐसा विचार करेंगे कि ये परमेश्वर थे । कर्त्ता न था और जगत् अनादि था तो उसने ऐसा कहा" ( मोक्षमाला पाठ ९२)। "परमेश्वरको जगत् रचनेकी क्या आवश्यकता थी? परमेश्वरने जगत्को रचा तो सुख दुःख बनानेका क्या कारण था । सुख दुःखको रचकर फिर मौतको किसलिये बनाया? यह लीला उसे किसे बतानी थी? जगत्को रचा तो किस कर्मसे रचा १ उससे पहिले रचनेकी इच्छा उसे क्यों न हुई? ईश्वर कौन है ? भगत्के पदार्थ क्या है और इच्छा क्या है ? जगत्को रचा तो फिर इसमें एक ही धर्मकी प्रवृत्ति रखनी थी। इस प्रकार भ्रमणामें डालने की क्या ज़रूरत थी? कदाचित् यह मान लें कि यह उस विचारेसे भूल हो गई। होगी ! खैर, क्षमा करते हैं। परन्तु ऐसी आवश्यकतासे अधिक अक्लमन्दी उसे कहसि सूती कि उसने अपनेको ही जबमूलसे उखारनेवाले महावीर जैसे पुरुषोंको जन्म दिया ? इनके कहे हुए दर्शनको जगत्में क्या मौजूद रक्खा ?" ( मोक्षमाला पाठ ९७ ) ।
मोक्षमालाका तीसरा भाग सर्वमान्य सिद्धांतविषयक है। इसमें कर्मका चमत्कार, मानवदेह, सत्संग, विनय, सामान्य नित्यनियम, जितेन्द्रियता आदि सर्वसामान्य बातोपर सुंदर विवेचन किया गया है। मानवदेहके विषयमें लिखा है:-"मनुष्य के शरीरकी बनावटके ऊपरसे विद्वान् उसे मनुष्य नहीं कहते, परन्तु उसके विवेकके कारण उसे मनुष्य कहते हैं। जिसके दो हाथ, दो पैर, दो आँख, दो कान, एक मुख, दो होठ और एक नाक हो उसे मनुष्य कहना ऐसा हमें नहीं समझना चाहिो । यदि ऐसा समझे तो फिर बंदरको भी मनुष्य गिनना चाहिये। उसने भी इस तरह हाथ पैर आदि सब कुछ प्राप्त किया है। विशेष रूपसे उसके पूँछ भी है, तो क्या उसे महामनुष्य कहना चाहिये ? नहीं, नहीं । जो मानवपना समझता है वही मानव कहला सकता है" (मोक्षमाला पाठ ४)। सूअर और चक्रवर्तीका सादृश्य:-" भोगोंके भोगनेमें दोनो तुच्छ है। दोनों के शरीर राद, माँस आदिके बने हैं, और असातासे पराधीन है। संसारकी यह सर्वोत्तम पदवी ऐसी है, उसमें ऐसा दु:ख, ऐसी क्षणिकता, ऐसी तुच्छता और ऐसा अन्धापन है, तो फिर दूसरी जगह सुख कैसे माना जाय?" ( मोक्षमाला पाठ ५२)। जितेन्द्रियताके विषयम:-"जबतक जीम स्वादिष्ट भोजन चाहती है, जबतक नासिकाको सुगंध अच्छी लगती है, अबतक कान वारांगना आदिके गायन और वादित्र चाहता है, जबतक आँख वनोपवन देखनेका लक्ष रखती है, जबतक त्वचाको सुगंधि-लेपन अच्छा लगता है, तबतक मनुष्य निरागी, निय, निष्परिग्रही, निरारंभी और ब्रह्मचारी नहीं हो सकता। मनको वशमै करना सर्वोत्तम है। इसके द्वारा सब इन्द्रियाँ वशमें की जा सकती है। मनको जीतना बहुत दुर्घट है। मन एक समयमै असंख्यातों योजन चलनेवाले अश्वके समान है। इसको थकाना बहुत कठिन है। इसकी गति चपल और पकड़ में न आनेवाली है। महा शानियोंने ज्ञानरूपी लगाम इसको वाम रखकर सबको जीत लिया है" (मोक्षमाला पाठ ६८)।