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राजवन्द्र और उनका संक्षिप्त परिचय आत्मसिदिमें १४२ पद्य हैं । पहिले ४२ पोंमें प्रास्ताविक विवेचनके पमात् शेष पद्योंमें 'आत्मा है, वह नित्य है, वह निज कर्मकी कता है, वह भोता है, मोक्ष है, और मोक्षका उपाय है-इन 'छह पदोंकी' ' सिद्धि की गई है। प्रास्ताविक विवेचनमें राजचन्द्रजीने शुष्कज्ञानी, क्रियाजद, मताथी, आत्मार्थी, सद्गुरु, असद्गुरु आदिका विवेचन किया है । शुकशानी और क्रियाजका लक्षण लिखते हुए राजचन्द्रजी कहते है
बामक्रियामा राचा अंतर्भेद न कांह। ज्ञानमार्ग निषेषतां तेह क्रियाजड आहि ॥
बंध मोक्ष छे कल्पना भाखे वाणीमांहि । वत्तें मोहावेशमा शुष्कशानी ते आंहि ॥ -जो मात्र बाह्यक्रिया में रचे पचे पदे हैं, जिनके अंतरमें कोई भी भेद उत्पन्न नहीं हुआ, और जो शानमार्गका निषेध करते हैं, उन्हें यहां क्रियाजद कहा है। बंध और मोक्ष केवल कल्पनामात्र है-इस निश्चय-वाक्यको जो केवल वाणीसे ही बोला करता है, और तथारूप दशा जिसकी हुई नहीं, और जो मोहके प्रभावमें ही रहता है, उसे यहाँ शुष्कशानी कहा है।
सद्गुरुके विषयमें राजचन्द्र लिखते हैं
आत्मशान समदर्शिता विचरे उदय प्रयोग । अपूर्व वाणी परमभुत सद्गुरु लक्षण योग्य ॥ -आत्मशानमें जिनकी स्थिति है, अर्थात् परभावकी इच्छासे जो रहित हो गये हैं। तथा शत्रु, मित्र, हर्ष, शोक, नमस्कार, तिरस्कार आदि भावके प्रति जिन्हें समता रहती है; केवल पूर्वमें उत्पन्न हुए कोंके उदयके कारण ही जिनकी विचरण आदि क्रियायें हैं, जिनकी वाणी अशानीसे प्रत्यक्ष भिन्न है; और जो षट्दर्शनके तात्पर्यको जानते हैं वे उत्तम सद्गुरु है।
तत्पश्चात् ग्रन्थकार गुरु-शिष्यके शंका-समाधानरूपमें 'षट्पद'का कथन करते हैं। प्रथम ही शिष्य आत्माके अस्तित्वके विषयमें शंका करता है और कहता है कि "न आत्मा देखने में आती है, न उसका कोई रूप मालूम होता है, और स्पर्श आदि अनुभवसे भी उसका ज्ञान नहीं होता। यदि आत्मा कोई वस्तु होती तो घट, पट आदिकी तरह उसका शान अवश्य होना चाहिये था" १ इस शंकाका उत्तर गुरु दस पद्यों में देकर अन्तमें लिखते हैं
आत्मानी शंका करे आत्मा पोते आप । शंकानो करनार ते अचरज एह अमाप ॥ -आत्मा स्वयं ही आत्माकी शंका करती है । परन्तु जो शंका करनेवाला है, वही आत्मा है-इस बातको आत्मा जानती नहीं, यह एक असीम आश्चर्य है।
आगे चलकर आत्माके नित्यत्व, कर्तत्व, भोक्तृत्व, मुक्ति और उसके साधनपर विवेचन किया गया है। आत्माके कर्तृत्वका विचार करते समय राजचन्द्रजीने ईश्वरकर्तृत्वके विषयमें अनेक विकल्प उठाकर उसका खंडन किया है। तत्पश्रात् मोक्षके उपायके संबंध शिष्य शंका करता है कि "संसारमें अनेक मत
और दर्शन मौजूद हैं। ये सब मत और दर्शन भिन्न भिन्न प्रकारसे मोक्षके उपाय बताते हैं । इसलिये किस जातिसे और किस वेषसे मोक्ष हो सकता है, इस बातका निश्चय होना कठिन है। अतएव मोक्षका उपाय नहीं बन सकता" इस शंकाका गुरुने नीचे लिखा समाधान किया है:
छोटी मत दर्शनतणो आग्रह तेम विकल्प । कमो मार्ग आ साधशे जन्म तेहना अस ॥
जाति वेषनो भेद नहीं करो मार्ग जो होय । साचे ते मुक्ति लहे एमां भेद न कोय ॥ -यह मेरा मत है, इसलिये मुझे इसी मतमें लगे रहना चाहिये; अथवा यह मेरा दर्शन है, इसलिये चाहे जिस तरह भी हो मुझे उसीकी सिदि करनी चाहिये-इस आग्रह अथवा विकल्पको छोड़कर जो उपर कहे हुए मार्गका साधन करेगा, उसे ही मोक्षकी प्राप्ति हो सकती है । तथा मोक्ष किसी भी जाति अथवा वेषसे
उपाध्याय यशोविजयजीने 'सम्यक्त्वनां षट्स्थान स्वरूपनी चौपाई में इन छह पदोका निम्न गाथामें उल्लेख किया है:
अस्थि जीवो वहा णि कत्ता भुचा य पुग्णपावाणं । भत्यि धुवं णिब्याणं तस्सोवाओ अछाणा॥