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राजचन्द्र और उनका संक्षिप्त परिचय गाथायें मुख्य हैं। ये दोनों प्रस्तुत प्रथम क्रमसे ७.०-६५७-३० और ३७-१४७-२१ में दिये गये हैं। इसके अलावा भीमद् राजचन्द्रने द्रव्यसंग्रह, बनारसीदासका समयसारनाटक, मणिरत्नमाला आदि बहुतसे प्रयोंके अंशोंका भाव अथवा शब्दशः अनुवाद अनेक स्थलोपर दिया है । गुणभद्रसरिके आत्मानुशासन और समंतभद्रके रत्नकरण्डभावकाचारके कुछ अंशका अनुवाद भी राजचन्द्रजीने किया था। विवेचनात्मक रचनायें
राजचन्द्रजीने अनेक प्रन्योंका विवेचन भी लिखा है। इनमें बनारसीदास, आनंदघन, चिदानन्द, यशोविजय आदि विद्वानोंके अन्यों के पद्य मुख्य हैं। राजचन्द्रजीने बनारसीदासके समयसारनाटकका खूब मनन किया था। वे बनारसीदासके समयसारके पद्योंको पढ़कर आत्मानंदसे उन्मत्त हो जाते थे। समयसारके पद्योंको राजचन्द्रजीने जगह जगह उद्धृत किया है। कुछ पद्योंका राजचन्द्रजीने विवेचन भी लिखा है। बनारसीदासजीकी तरह आनन्दघनजीको भी राजचन्द्र बहुत आदरकी दृष्टिसे देखते हैं। उनकी आनन्दधनचौबीसीका राजचन्द्रजीने विवेचन लिखना आरंभ किया था, परन्तु वे उसे पूर्ण न कर सके। यह अपूर्ण विवेचन प्रस्तुत अन्यमै ६९२-६३५-३० में दिया गया है। आनन्दघनौविसीके अन्य भी अनेक पद्य राजचन्द्रजीने उद्धृत किये हैं। राजचन्द्रजीने 'स्वरोदयशान' का विवेचन लिखना भी शुरू किया था। यह विवेचन अपूर्णरूपसे ९-१२८,९-१९ में दिया गया है। यशोविजयजीकी आठ दृष्टिनी सज्मायके 'मन महिलानुं वहाला उपरे' आदि पद्यका भी राजचन्द्रजीने विवेचन लिखा है । इसके अतिरिक्त राजचन्द्रजीने उमास्वातिके तत्वार्थसूत्र, स्वामी समंतभद्रकी आसमीमांसा और हेमचन्द्र के योगशास्त्रके मंगलाचरणका सामान्य अर्थ भी लिखा है।
उपसंहार राजचन्द्र अलौकिक क्षयोपशमके धारक एक असाधारण पुरुष थे । स्याग और वैराग्यकी वे मूर्ति थे। अपनी वैराग्यधारामें वे अत्यंत मस्त रहते थे, यहाँतक कि उनें खाने, पीने, पहिनने, उठने, बैठने आदितककी भी सुध न रहती थी। हरिदर्शनकी उन्हें अतिशय लगन थी । मुक्कानन्दजीके शब्दोंमें उनकी यही रटन थी:
हसतां रमतां प्रगट हरि देखुं रे माकं जीव्यु सफळ तव लेखु रे ।
मुक्तानंदनो नाथ बिहारी रे ओधा जीवनदोरी अमारी रे ॥ 'अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे'-आदि पद्यकी रचना भी राजचन्द्रजीने इसी अतिशय वैराग्य भावनासे प्रेरित होकर की थी। राजचन्द्रजीका वैराग्य सबा वैराग्य था। उनमें दंभ अथवा कपटका तो लेश भी न था। जो कुछ उनके अनुभवमें आता, उसे वे अत्यन्त स्पष्टता और निर्भयतापूर्वक दूसरों के समक्ष रखने में सदा तैग्यार रहते थे । प्रतिमापूजन, क्षायिक समकित, केवलशान आदि सैद्धांतिक प्रभोंके ऊपर अपने स्वतंत्र. तापूर्वक विचार प्रकट करनेमें राजचन्द्रजीने कहीं जरा भी संकोच अथवा भय प्रदर्शित नहीं किया। अपनी स्वात्मदशाका वे सदा निरीक्षण करते रहते थे, और अपनी जैसीकी तैसी दशा पत्रोद्वारा मुमुक्षुओको लिख भेजते थे । 'निर्विकल्प समाधि पाना अभी बाकी है,''अपनी न्यूनताको पूर्णता कैसे कह दूँ,' 'मैं भभी आचर्यकारक उपाधिमें पड़ा हूँ,' 'मैं यथायोग्य दशाका अभी मुमुक्षु हूँ' इत्यादि रूपमें वे अपनी अपूर्णताको मुमुक्षुओंको सदा लिखते ही रहते थे। .१ भीमदनी जीवनयात्रा पृ. ८८.
राजचन्द्रजीने अपनी अपूर्ण अवस्थाका जगह जगह निम्न प्रकारसे प्रदर्शन किया है।"भो ! अनंत भवके पर्यटनमें किसी सत्पुरुषके प्रतापसे इस दशाको प्राप्त इस देहधारीको तुम चाहते हो और उससे धर्मकी इच्छा करते हो । परन्तु वह तो अभी किसी भाभर्यकारक उपाधिमें पड़ा है। यदि वह