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लेखसंग्रह
विचारधारायें उदित होती थीं, उन्हें वे अपनी डायरीमें नोट कर लेते थे । यद्यपि राजचन्द्रजीके पत्रोंकी तरह उनकी प्राइवेट डायरी भी अपूर्ण ही हैं, फिर भी जो कुछ हैं, वे बहुत महत्वकी हैं। राजचन्द्रजीके लेखोंका तीसरा भाग उनकी मौलिक अथवा अनुवादात्मक और विवेचनात्मक रचनायें हैं। मौलिक रचनायें
स्त्रीनीतिबोध प्रथम भाग, राजचन्द्रजीकी १६ वर्षसे पहिलेकी रचनाओं में प्रथम रचना गिनी जाती है। यह ग्रंथ पद्यात्मक है, और यह सं. १९४० में प्रकाशित हुआ है ' । राजचन्द्रजीने इस ग्रंथको तीन भागोंमें बनानेका विचार किया था। मालूम होता है राजचन्द्र शेष दो भागोंको लिख नहीं सके । ग्रंयके मुखपृष्ठके ऊपर स्त्रीशिक्षाकी आवश्यकताके विषयमें निम्न पद्य दिया गया है:
थवा देश आबाद सौ होस धारो, भणावी गणावी वनिता सुधारो।
थती आर्यभूमि विषे जेह हानि, करो दूर तेने तमे हित मानी ॥ राजचन्द्रजीने इस ग्रंथकी छोटीसी प्रस्तावना भी लिखी है । उसमें स्त्रीशिक्षाके ऊपर जो पुराने विचारके लोग आक्षेप करते हैं, उनका निराकरण किया है। तथा स्त्रियों को सुधारनेके लिये बाललम, अनमेल विवाह आदि कुप्रथाओंको दूर करनेका लोगौसे अनुरोध किया है । इस पुस्तकके राजचन्द्रजीने चार भाग किये है। प्रथम भागमे ईश्वरप्रार्थना, क्षणभंगुर देह, माताकी पुत्रीको शिक्षा, समयको व्यर्थ न खोना आदि। दुसरे भागमे शिक्षा, शिक्षाके लाभ, अनपढ स्त्रीको धिक्कार आदि तीसरे भागमें सुधार, सद्गुण, सुनीति, सत्य, परपुरुष, आदि; तथा चौथे भागमें 'सद्गुणसजनी' और ' सोधशतक' इस तरह सब मिलाकर चौबीस गरवी हैं।
राजचन्द्रजीका दूसरा ग्रंथ काव्यमाला है। 'स्त्रीनीतिबोध' के अन्तमें दिये हुए विज्ञापनमें राजचन्द्रजीने काव्यमाला नामक एक सुनीतिबोधक पुस्तक बनाकर तैय्यार करनेकी सूचना की है। इससे मालूम पड़ता है कि काव्यमाला कोई नीतिसंबंधी पुस्तक होनी चाहिये । इस पुस्तकमै एकसौ माठ काव्य है, जिनके चार भाग किये गये हैं। इस पुस्तकके विषयमें कुछ विशेष ज्ञात नहीं हो सका।
राजचन्द्रजीकी तीसरी पुस्तक हे पचनसप्तशती । राजचन्द्रजीने वचनसप्तशतीको पुनः पुनः स्मरण रखनको लिखा है। इस ग्रंथमे सातसो वचन गूंथे गये है ।उनसे कुछ वचन निम्न प्रकारसे हैं:
सिर चला जाय पर प्रतिज्ञा भंग न करना (१९). किसी दर्शनकी निन्दा न करूँ (६७). अधिक व्याज न (३३५). दीर्घशंकामें अधिक समय न लगाऊँ (३९०). आजीविकाकी विद्याका सेवन न करूँ (४१५). फोटो न खिंचवाऊँ (४५३). क्षौरकर्मके समय मौन रहूँ (५१५). पुत्रीको पड़ाये बिना न रहूँ (५४५). कुटुंम्बको स्वर्ग बनाऊँ (५६१). . रामचन्द्रजीकी १६ वर्षसे पूर्वकी चौथी रचना पुष्पमाला है। जिस तरह जापमालामें एकसौ भाठ दाने होते हैं, उसी तरह राजचन्द्रजीने सुबह शाम निवृत्तिके समय पाठ करनेके लिए एकसौ आठ बचोंमें पुष्पमालाकी रचना की है। इसमें राजा, वकील, श्रीमंत, बालक, युवा, वृद्ध, धर्माचार्य, कृपण, दुराचारी, कसाई आदि सभी तरहके लोगों के लिये हितवचन लिखे गये हैं। सोलह वर्षसे कम अवस्थाम इतने गंभीर और मार्मिक वचनोंका लिखा जाना, सचमुच बहुत आमर्यकारक है। इनमेंसे कुछ वाक्य यहाँ दिये जाते है:__ यदि तुझे धर्मका अस्तित्व अनुकूल न आता हो तो जो नीचे कहता हूँ उसे विचार जाना:
छपा हुआ अंय मुझे देखनेको नहीं मिला । मैंने यह विवेचन भीयुत दामजी केशवजीके संग्रहमें हस्तलिखित चीनीतिबोधके उपरसे लिखा है।
२ श्रीयुत गोपालदास जीवाभाई पटेल 'भीमदनी जीवनयात्रा में लिखते हैं कि रामचन्द्रजीने बचन सप्तशतीके अलावा 'महानीति' के सातसो वचन अलग लिखे। परन्तु एक समनके कथनानुसार महानीतिके सातसौ वचन और वचनसतशती एकही है, अलग अलग नहीं। .