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मात्मविकासकी उप पशा
समझमें आने जैसा नहीं है। हम सभी पदार्थोसे उदास हो जानेसे चाहे जैसे प्रवर्त्तते हैं, व्रत नियमका भी कोई नियम नहीं रक्खा; भेदभावका कोई भी प्रसंग नहीं; हमने अपनेसे विमुख जगत्में कुछ भी माना नहीं; हमारे सन्मुख ऐसे सत्संगीके न मिलनेसे खेद रहा करता है संपत्ति भरपूर है, इसलिये संपत्तिकी इच्छा नहीं, शब्द आदि अनुभव किये हुए विषय स्मृतिमै आ जानेके कारण-अथवा चाहे उसे ईश्वरेच्छा कहोपरन्त उसकी भी अब इच्छा नहीं रही अपनी इच्छासे ही थोड़ी ही प्रवृत्ति की जाती है; हरिकी इच्छाका क्रम जैसे चलाता है वैसे ही चलते चले जाते हैं। हृदय प्रायः शून्य जैसा हो गया है; पाँचों इन्द्रियाँ शून्यरूपसे ही प्रवृत्ति करती हैं; नय-प्रमाण वगैरह शास्त्र-भेद याद नहीं आते; कुछ भी बाँचनेमें चित्त नहीं लगता; खानेकी, पीनेकी, बैठनेकी, सोनेकी, और बोलनेकी वृत्तियाँ सब अपनी अपनी इच्छानुसार होती है; तथा हम अपने स्वाधीन हैं या नहीं, इसका भी यथायोग्य भान नहीं रहा।
इस प्रकार सब तरहसे विचित्र उदासीनता आ जानेसे चाहे जैसी प्रवृत्ति हो जाया करती है। एक प्रकारसे पूर्ण पागलपन है; एक प्रकारसे उस पागलपनको कुछ छिपाकर रखते हैं, और जितनी मात्रामें उसे छिपाकर रखते हैं, उतनी ही हानि है। योग्यरूपसे प्रवृत्ति हो रही है अथवा अयोग्यरूपसे, इसका कुछ भी हिसाब नहीं रक्खा। आदि-पुरुषमें एक अखंड प्रेमके सिवाय दूसरे मोक्ष आदि पदाथोकी भी आकांक्षाका नाश.हो गया है । इतना सब होनेपर भी संतोषजनक उदासीनता नहीं आई, ऐसा मानते हैं । अखंड प्रेमका प्रवाह तो नशेके प्रवाह जैसा प्रवाहित होना चाहिये । परन्तु वैसा प्रवाहित नहीं हो रहा, ऐसा हम जान रहे हैं। ऐसा करनेसे वह अखंड नशेका प्रवाह प्रवाहित होगा ऐसा निश्चयरूपसे समझते हैं। परन्तु उसे करनेमें काल कारणभूत हो गया है। और इन सबका दोष हमपर है अथवा हरिपर, उसका ठीक ठीक निश्चय नहीं किया जा सकता। इतनी अधिक उदासीनता होनेपर भी व्यापार करते हैं, लेते हैं, देते हैं, लिखते हैं, बाँचते हैं, निभाते जा रहे हैं, खेद पाते हैं, हँसते भी हैं, जिसका ठिकाना नहीं, ऐसी हमारी दशा है; और उसका कारण केवल यही है कि जबतक हरिकी सुखद इच्छा नहीं मानी तबतक खेद मिटनेवाला नहीं। यह बात समझमें आ रही है, समझ भी रहे हैं, और समझेंगे भी, परन्तु सर्वत्र हरि ही कारणरूप है।
हमारा देश हरि है, जाति हरि है, काल हरि है, देह हरि है, रूप हरि है, नाम हरि है, दिशा हरि है, सब कुछ हरि ही हरि है । और फिर भी हम इस प्रकार कारवारमें लगे हुए हैं। यह इसीकी इच्छाका कारण है।"'
इससे मालूम होता है कि राजचन्द्र एक पहुँचे हुए संत ( Mystic ) थे। उन्होंने कबीर, दाद, प्रीतम, आनन्दधन आदि संतोंकी तरह उस 'अवामानसगोचर' सहजानन्दकी उच्च दशाका अनुभव किया था, जिसका उपनिषद्के ऋषियों-मुनियोंसे लगाकर पूर्व और पश्चिमके अनेक संतों और विचारकोंने जगह जगह बखान किया है। स्वामी विवेकानन्दने इस दशाका निम्न प्रकारसे वर्णन किया है:
___ There is no feeling of I, and yet the mind works, desireless, free from restlessness, objectless, bodiless. Then the truth shines in its full effulgence, and we know ourselves--for Samadhi lies potential in us allfor what we truly are, free, immortal omnipotent, loosed from the finite and its contrasts of good and evil altogether, and identical with the Atman or Universal Soul-अर्थात् उस दशामें अहंभावका विचार नहीं रहता, परन्तु मन इच्छारहित होकर, चंचलताहित होकर, प्रयोजनरीहत होकर और शरीररहित होकर काम करता है। उस समय सत्य अपने पूर्ण तेजसे दैदीप्यमान होता है,और हम अपने आपको जान लेते हैं। क्योंकि समाधि हम सबमें
१ २१७-२५४-२४ तुलना करो:
हरिमय सर्व देखे ते भक्त, शानी आपे छे अध्यक्त । अहर्निश मन जो वेभ्यु रहे, तो कोण नंदे ने कोने कहे ॥ वण पामे बकवादज करे गळे गर्जना भला उतरे-अखाना छप्पा वेषविचार अंग ४५५.