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जगत्का अधिष्ठान हरि
की वृत्ति रक्खी है। इसके कारण यद्यपि कोई खेद तो नहीं, परन्तु भेदका प्रकाश नहीं किया जा सकता, यही चिन्ता निरंतर रहा करती है।
अनेक अनेक प्रकारसे मनन करनेपर हमें यही हा निश्चय हुआ कि भक्ति ही सर्वोपरि मार्ग है और वह ऐसी अनुपम वस्तु है कि यदि उसे सत्पुरुषके चरणों के समीप रहकर की जाय तो वह क्षणभरमें मोक्ष दे सकती है।"' जगत्का अधिष्ठान हरि
राजचन्द्र यहींतक नहीं ठहरते । वे तीर्थकरतकको नहीं छोड़ते, और जैनदर्शनके महान् उपासक होनेपर भी वे स्पष्ट लिखते हैं कि 'इस जगत्का कोई अधिष्ठान, अर्थात् 'जिसमेसे वस्तु उत्पन्न हुई हो, जिसमें वह स्थिर रहे, और जिसमें वह लय पावे'-अवश्य होना चाहिये। यह रहा वह अप्रकट पत्रः- " जैनकी बाल शैली देखनेपर तो हम तीर्थंकरको सम्पूर्ण ज्ञान हो' यह कहते हुए भ्रांतिमें पड़ जाते हैं। इसका अर्थ यह है कि जैनकी अंतशैली दूसरी होनी चाहिये। कारण कि इस जगत्का 'अधिष्ठान ' के बिना वर्णन किया है, और वह वर्णन अनेक प्राणी-विचक्षण आचार्योंको भी भ्रांतिका कारण हआ है। तथापि यदि हम अपने अभिप्रायके अनुसार विचार करते हैं तो ऐसा लगता है कि तीर्थंकरदेवकी आत्मा ज्ञानी होनी चाहिये । परन्तु तत्कालविषयक जगतके रूपका वर्णन किया है और लोग सर्व कालमें ऐसा मान बैठे हैं, जिससे भ्रांतिमें पड़ गये हैं। चाहे जो हो परन्तु इस कालमें जैनधर्ममै तीर्थे। करके मार्गको जाननेकी आकांक्षावाले प्राणियोंका होना दुर्लभ है । कारण कि एक तो चट्टानपर चढ़ा हुआ जहाज-और वह भी पुराना-यह भयंकर है। उसी तरह जैनदर्शन की कथनी घिस जानेसे-' अधिष्ठान' विषयक मांतिरूप चहानपर वह जहाज चढ़ा है-जिससे वह सुखरूप नहीं हो सकता। यह हमारी बात प्रत्यक्ष प्रमाणसे मालूम होगी। तीर्थंकरदेवके संबंध हमें बारंबार विचार. रहा करता है कि उन्होंने इस जगत्का 'अधिष्ठान 'के बिमा वर्णन किया है उसका क्या कारण ? क्या उसे 'अधिष्ठान'का ज्ञान नहीं हुआ होगा ? अथवा 'अधिष्ठान' होगा ही नहीं ? अथवा किसी उद्देशसे छिपाया होगा ? अथवा कथनभेदसे परंपरासे समझमें न आनेसे अधिष्ठानविषयक कथन लय हो गया होगा ? यह विचार हुआ करता है । यद्यपि तीर्थंकरको हम महान् पुरुष मानते हैं; उसे नमस्कार करते हैं; उसके अपूर्व गुणके उपर हमारी परम भक्ति है और उससे हम समझते हैं कि अधिष्ठान तो उनका जाना हुआ था, परन्तु लोगोंने परंपरासे मार्गकी भूलसे लय कर डाला है । जगत्का कोई अधिष्ठान होना चाहिये-ऐसा बहुतसे महात्माओंका कथन है, और हम भी यही कहते हैं कि अधिष्ठान है और वह अधिष्ठान हरि भगवान् है-जिसे फिर फिरसे हृदयदेशमें चाहते हैं।
तीर्थकरदेवके लिये सख्त शब्द लिखे गये हैं, इसके लिये उसे नमस्कार ।" . ११७४-२३२-२४. १ अखाने भी ईश्वरको अधिष्ठान बताते हुए ' अखे गीता' में लिखा है
अधिष्ठान ते तमे स्वामी तेणे ए चाल्यु जाय ।
अणछतो जीव हुं हुं करे पण भेद न प्रीछे प्राय ॥ कडवू १९-९. १ जननी बाल शैली जोतां तो अमे तीर्थकरने सम्पूर्ण शान होय एम कहेतां भ्रांतिमां पडीए छीए. आनो अर्थ एवो छ के जननी अंतशैली बीजी जोइए. कारणके अधिष्ठान' बगर भा जगत्ने वर्णव्यु छ, अने ते वर्णन अनेक प्राणीओ-विचक्षण आचार्योने पण भ्रांतिनुं कारण थयु छ, तथापि अमे अमारा अभिप्रायप्रमाणे विचारीए छीए तो एम लागे छ के तीर्थंकरदेव तो ज्ञानी आत्मा होवा जोइए; परन्तु ते काळपरत्वे जगतर्नु रूप वर्णम्युं छे, अने लोको सर्वकाळ एएं मानी बेठा छे; जेथी भ्रातिमा पच्या छे. गमे तेम हो पण आ काळमां जैनमा तीर्थकरना मार्गने जाणवानी आकांक्षावाळो प्राणी यवो दुलभ संभवे के; कारणके खराबे चटुं वहाण-अने ते पण जून-ए भयंकर छे. तेमज जैननी कथनी घसाई नई-'अधिष्ठान' विषयनी भ्रांतिकप सरावे ते वहाण चढ -यी सुखरूप ९ संभवे नहीं.