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सब धर्मोका मूल मात्मधर्म है। वास्तवमै उसमें भेद नहीं। जबतक जीवको अपने मतका आग्रह है, तबतक उसका कल्याण नहीं होता । कोई जैन कहा जाता हो, और मतसे ग्रस्त हो तो वह अहितकारी है--मतरहित ही हितकारी है। वैष्णव, बौद्ध, श्वेताम्बर, दिगम्बर चाहे कोई भी हो, परन्तु जो कदाग्रहरहित भावसे, शुद्ध समतासे आवरणाको घटावेगा कल्याण उसीका होगा, इत्यादि विचारों को राजचन्द्रजीने जगह जगह प्रकट किया है। सब धोका मूल आत्मधर्म
इस समय राजचन्द्र सब धर्मोका मूल आत्मधर्म बताते हैं, और वे स्पष्ट कह देते है:-- भिन्न भिन्न मत देखिये भेद दृष्टिनो एह । एक तस्वना मूळमा व्याप्या मानो तेह ॥
तेह तस्वरूप वृक्षतुं आत्मधर्म छे मूळ । स्वभावनी सिद्धि करे, धर्म तेज अनुकूळ ॥ --अर्थात् जगत्में जो भिन्न भिन मत दिखाई देते हैं, वह केवल दृष्टिका भेद मात्र है। इन सबके मूलमें एक ही तस्व रहता है, और वह तस्व आस्मधर्म है। अतएव जो निजभावकी सिद्धि करता है, वही धर्म उपादेय है। विशालदृष्टि राजचन्द्र कहा करते थे " विचार जिन जेवं, रहेई वेदांती जे"अर्थात् जिनके समान विचारना चाहिये और वेदांतीके समान रहना चाहिये। एकबार राजचन्द्रजीने वेदमत और जैनमतकी तुलना करते हुए निम्न शब्द कहे थे:-" जैन स्वमत अने वेद परमत एवं अमारी दृष्टिमां नथी । जैनने संक्षेपीए तो ते जैनज छे । अने अमने तो कहें लांबो भेद जणातो नथी"--' अर्थात् जैन स्वमत है और वेद परमत है, यह हमारी दृष्टि नहीं है। जैनको संक्षिप्त करें तो वह वेदमत है, और वेदमतको विस्तृत करें तो वह जैनमत है। हमें तो दोनोंमें कोई बड़ा भेद मालूम नहीं होता। इन्हीं माध्यस्थ सम्प्रदायातीत विचारों के कारण राजचन्द्रजीने सब संतोके साथ मिलकर उच्च स्वरसे गाया था कि 'ऊँच नीचनो अंतर नथी समज्या ते पाम्या सदति '-अर्थात् सदति प्राप्त करनेमें-मोक्ष प्राप्त करने मेंऊँच-नीचका, गच्छ-मतका, तथा जाति और वेषका कोई भी अंतर नहीं; वहाँ तो जो हरिको निष्कामभावसे भजता है, वह हरिका हो जाता है । इसलिये राजचन्द्रजीने कहा भी है:
"निदोष सुख निदोष आनंद ल्यो गमे त्यांची मळे ।
ए दिव्यशक्तिमान जेयी जंजिरेथी नीकळे ॥
-अर्थात् जहाँ कहींसे भी हो सके निदोष मुख और निर्दोष आनन्दको प्रात करो। लक्ष्य केवल यही रक्खो जिससे यह दिव्यशक्तिमान आत्मा जंजीरोसे-बंधनसे-निकल सके। ईश्वरभाक्ति सर्वोपरिमार्ग
यहाँ यह बात विशेष ध्यान रखने योग्य है कि राजचन्द्रजीकी विचारोकान्तिकी यही इतिभी नहीं हो जाती। परन्तु वे इससे भी आगे बढ़ते हैं। और इस समय 'ईश्वरेच्छा, हरिकृपा,'
१५३-१६२-२१. २ हरिभद्रपरिने भी इसी तरहके मिलते जुलते विचार प्रकट किये :
श्रोतव्यो सौगतो धर्मः कर्त्तव्यः पुनराईतः।
- वैदिको व्यवहत्तव्यो ध्यातव्यः परमः शिवः ॥ -अर्थात् बौवधर्मका श्रवण करना चाहिये, जैनधर्मका आचरण करना चाहिये, वैदिकधर्मको व्यवहारमें लाना चाहिये, और शैवधर्मका ध्यान करना चाहिये.
३ श्रीयुत दामजी केशवजीके संग्रहमें एक मुमुक्षुके लिखे हुए राजचन्द्र-वृत्तांतके आधारसे । वे विचार राजचन्द्रजीने कुछ अजैन साधुओंके समक्ष प्रकट किये थे, ये साधु एकदम आकर जैनधर्मकी निन्दा करने लगे थे.
४ छोडी मत दर्शन तणो आग्रह तेम विकल्प । कमो मार्ग मा साधो जन्म तेहना अस ॥ . जातिवेषनो भेद नहीं कमो मार्ग जो कोय। साधे ते मुक्ति लहे एमां भेद न कोय ॥
भास्मसिदि १.५-७.१.१७.