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वेदान्त मांदि दर्शनोंका अभ्यास
जाता हो-सचा आत्मशान प्रकट होता हो, वही जैनमार्ग है।' 'जैनधर्मका आशय-दिगम्बर तथा श्वेताम्बर आचार्योंका आशय-द्वादशांगीका आशय-मात्र आत्माका अनातन धर्म प्राप्त करना ही है।' 'दिगम्बर और श्वेताम्बरमें तस्वदृष्सेि कोई भेद नहीं, जो कुछ भेद है वह मतदृष्टिसे ही है। उनमें कोई ऐसा भेद नहीं जो प्रत्यक्ष कार्यकारी हो सके । दिनम्बग्त्व-श्वेताम्बरत्व आदि देश, काल और अधिकारीके संबंधसे ही उपकारके कारण है। शरीर आदिके बल घट जानेसे सब मनुष्योंसे सर्वथा दिगम्बर वृत्तिसे रहते हुए चारित्रका निर्वाह संभव नहीं इसलिये शानीद्वारा उपदेश किया हुआ मर्यादापूर्वक श्वेताम्बर वृत्तिसे आचरण करना बताया गया है । तथा इसी तरह वस्त्रका आग्रह रखकर दिगम्बर वृत्तिका एकांत निवेश करके वस्त्र-मूर्छा आदि कारणोंसे चारित्रमे शिथिलता करना भी योग्य नहीं, इसलिये दिगम्बर वृत्तिसे आचरण करना बताया गया है।''
राजचन्द्रजी कहा करते थे कि, जैनशास्त्रोंमें नय,प्रमाण, गुणस्थान, अनुयोग, जीवराशि आदिकी चर्चा परमार्थके लिये ही बताई है। परन्तु होता है क्या कि लोग नय आदिकी चर्चा करते हुए नय आदिमें ही गुंथ जाते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि शास्त्रोंमें जो सात अथवा अनंत नय बताये हैं वे सब एक आत्मार्थ ही के लिये हैं। यदि नय आदिका परमार्थ जीवमेंसे निकल जाय तो ही फल होता है, नहीं तो जीवको नय आदिका शान जालरूप ही हो जाता है, और वह फिर अहंकार बढ़नेका स्थान होता है। अतएव वास्तवमें नय प्रमाण आदिको लक्षणारूप ही समझना चाहिये, लक्ष तो केवल एक सचिदानन्द है। वेदान्त आदि दर्शनोंका अभ्यास
राजचन्द्रजीका ज्ञान जैनशास्त्रोतक ही सीमित न रहा, परन्तु उन्होंने योगवासिष्ठ, भागवत, विचारसागर, मणिरत्नमाला, पंचीकरण, शिक्षापत्र, वैराग्यशतक, दासबोध, सुंदरविलास, मोहमुद्र, प्रबोधशतक आदि वेदांत आदि ग्रंथोंका भी खूब मनन-निदिध्यासन किया था। यद्यपि जान पड़ता है कि राजचन्द्रजीने बौद्ध, सांख्य, पातंजल, न्याय, वैशेषिक, रामानुज आदि दर्शनाका सामान्य परिचय षड्दर्शनसमुच्चय आदि जैन पुस्तकोंसे ही प्राप्त किया था, परन्तु उनका वेदान्त दर्शनका अभ्यास बहुत अच्छा था। इतना ही नहीं, वेदान्त दर्शनकी ओर राजचन्द्र अमुक अंशमै बहुत कुछ आकर्षित भी हुए थे, और बहुतसे जैनसिद्धांतोंके साथ वेदान्त दर्शनकी उन्होंने तुलना भी की थी।" जैन और वेदान्तकी तुलना करते हुए वे लिखते हैं:-वेदात और जिनसिद्धांत इन दोनों में अनके प्रकारसे भेद हैं। वेदान्त एक ब्रह्मस्वरूपसे सर्वस्थितिको कहता है, जिनागममें उससे भिन्न ही स्वरूप कहा गया है।
१ देखो ६९४-६४८-३०, ७३३-६८५-३०. २ यथोविजयजी भी लिखते हैं:
जिहां लगि आतमद्रव्यनु लक्षण नवि जाण्यु । तिहां लगि गुणठाणु भलु केम आवे ताण्युं ॥ आतमतत्त्व विचारिए ए आंकणी ।
-आत्मतत्त्वविचार नयरहस्य सीमंघर जिनस्तवन ३-१. ३ ६४३-५५७,५६६-२९, १८०-२३६-२४.
४ राजचन्द्रजीका बौदधर्मका शान प्रान्त मालूम होता है। बौद्धधर्मके चार मेद बताते हुए राजचन्द्रजीने माध्यमिक और शून्यवादीको भिन्न भिन्न गिनाया है। जबकि ये दोनों वस्तुतः एक ही है। इसी तरह वे लिखते हैं कि 'शून्यवादी बोदके मतानुसार आत्मा विज्ञानमात्र है, परन्तु विज्ञानमात्रको विज्ञानवादी बौदही स्वीकार करते है, शून्यवादी तो सब शून्य ही मानते हैं-देखो पृ. ५१८ पर अनुवादकका फुटनोट.
__५ देखो ५-७-४४९-२८, ५६२-४७५-१९१ ५९५-४९१-२९, ५१४-४९८-१९ ६१६-५१३-२९१६५७,६५८-५०३, ४-२९.