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राजचन्द्र और उनका संक्षित परिचय
समयसार पढ़ते हुए भी बहुतसे जीवोंका एक ब्रह्मकी मान्यतारूप सिद्धांत हो जाता है। बहुत सत्संगसे तथा वैराग्य और उपशमका बल विशेषरूपसे बढ़नेके पश्चात् सिद्धांतका विचार करना चाहिये । यदि ऐसा न किया जाय तो जीव दूसरे मार्गमें आरूढ होकर वैराग्य और उपशमसे हीन हो जाता है। एक 'ब्रह्मरूप 'के विचार करने में बाधा नहीं, अथवा 'अनेक आत्मा के विचार करने में बाधा नहीं। तुम्हें तथा दूसरे किसी मुमुक्षुको मात्र अपने स्वरूपका जानना ही मुख्य कर्तव्य है; और उसके जाननेके शम, संतोष, विचार
और सत्संग ये साधन है। उन साधनोंके सिद्ध हो जानेपर और वैराग्य उपशमके परिणामकी वृद्धि होनेपर ही' आस्मा एक है,' अथवा 'आत्मा अनेक है' इत्यादि भेदका विचार करना योग्य है।'' जैनधर्मके आग्रहसे मोक्ष नहीं
इससे स्पष्ट मालूम होता है कि अब धीरे धीरे राजचन्द्रजीका लक्ष साम्प्रदायिक आग्रहसे हटकर आत्मशानकी ओर बढ़ता जा रहा है। इसीलिये राजचन्द्रजीने जगह जगह वैराग्य और उपशमके कारणभूत योगवासिष्ठ आदि स योंके वाचन मनन करनेका अनुरोध किया है। वे साफ लिख देते हैं कि जब हम वेदान्तके ग्रंथोंका अवलोकन करनेके लिये कहते हैं तब वेदान्ती होनेके लिये नहीं कहते; जब जैन ग्रंथोंका अवलो. कन करने के लिये कहते हैं तब जैन होनेके लिये नहीं कहते । किन्तु वेदान्त और जिनागम सबके अवलोकन करनेका उद्देश एक मात्र ज्ञान-प्राप्ति ही है। हालम जैन और वेदांती आदिके भेदका त्याग करो। आत्मा वैसी नहीं है। तथा जबतक आत्मामे वैराग्य-उपशम वरूपसे नहीं आते तबतक जैन वेदांत आदिके उक्त विचारोंसे चित्तका समाधान होनेके बदले उल्टी चंचलता ही होती है, और उन विचारोंका निर्णय नहीं होता, तथा चित्त विक्षिप्त होकर बादमें यथार्थरूपसे वैराग्य-उपशमको धारण नहीं कर सकता' । इतना ही नहीं, इस समय राजचन्द्र सूत्रकृतांग आदि जैन शास्त्रोंको भी कुलधर्मकी वृदिके लिये पढ़नेका निषेध करते हैं। और वे इन ग्रंथोंके भी उसी भागको विशेषरूपसे पठन करनेके लिये कहते हैं जिनमें सत्पुरुषोंके चरित अथवा वैराग्य-कथा आदिका वर्णन किया गया हो; और वे यहाँतक लिख देते हैं कि 'जिस पुस्तकसे वैराग्य-उपशम हो, वे ही समकितदृष्टिकी पुस्तकें हैं।'
धीरे धीरे राजचन्द्रजीको अखा, छोटम, प्रीतम, कबीर, सुन्दरदास, मुक्तानन्द, धीरा, सहजानन्द, आनन्दघन, बनारसीदास आदि संत कवियोंकी वाणीका रसस्वादन करनेको मिला और इससे उनका माध्यस्थमाव-समभाव-इतना बढ़ गया कि उन्होंने यहाँ तक लिख दिया-'मैं किसी गच्छमें नहीं, परन्तु आस्मामें हूँ।'' तथा 'जैनधर्मके आग्रहसे ही मोक्ष है, इस मान्यताको आत्मा बहुत समयसे भूल चुकी है।'' 'सब शास्त्रोको जाननेका, क्रियाका, शानका, योगका और भक्तिका प्रयोजन निजस्वरूपकी प्राप्ति करना ही है। चाहे जिस मार्गसे और चाहे जिस दर्शनसे कल्याण होता हो, तो फिर मतमतांतरकी किसी अपेक्षाकी शोष करना योग्य नहीं।' 'मतभेद रखकर किसीने मोक्ष नहीं पाया।' इसलिये " जिस अनुप्रेक्षासे, जिस दर्शनसे और शानसे आत्मस्व प्राप्त हो वही अनुप्रेक्षा, वही दर्शन और वही शान सर्वोपरि है।" "प्रत्येक सम्प्रदाय अथवा दर्शनके महात्माओंका लक्ष एक 'सत्' ही है। वाणीसे अकथ्य होनेसे वह गूंगेकी श्रेणीसे समझाया गया है, जिससे उनके कथनमें कुछ भेद मालूम होता
.४२४-३९२-२७. १२९६-२९२-२५. ३४१३-३७४-२७.
४ राजचन्द्रजीने भवधू, अलखलय, सुधारस, अमरस अणछतुं, अनहद, पराभकि, हरिजन आदि संत साहित्यके अनेक शब्दोका जगह जगह प्रयोग किया है, इससे स्पष्ट मालूम होता है कि गमचन्द्रजीने इस साहित्यका मन मनन किया था.
५४४-१५०-२१.
.४४-१५७-११.