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राजचन्द्र और उनका संक्षिप्त परिचय
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मूर्तिपूजनका समर्थन
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इस संबंध में यह बात अवश्य ध्यान में रखने योग्य है कि यद्यपि राजचन्द्रजीके जैनतस्वशानका अम्बास जैन स्थानकवासी सम्प्रदायसे शुरू होता है, परन्तु ज्यों ज्यों उन्हें श्वेताम्बर मूर्त्तिपूजक और दिगम्बर सम्प्रदायका साहित्य देखनेको मिलता गया, त्यों त्यों उनमें उत्तरोत्तर उदारताका भाव आता गया । उदाहरणके लिये प्रारंभमें राजचन्द्र मूर्त्तिपूजाके विरोधी थे, परन्तु आगे चलकर वे प्रतिमाको मानने लगे थे । राजचन्द्रजीके इन प्रतिमापूजनंसंबध विचारोंके कारण बहुत से लोग उनके विरोधी भी हो गये थें । परन्तु उन्हें तो किसीकी प्रसन्नता अप्रसन्नताका विचार किये बिना ही, जो उन्हें उचित और न्यायसंगत जान पड़ता था, उसीको स्वीकार करना था । राजचन्द्रजीने स्वयं इस संबंध में अपने निम्नरूपसे विचार प्रकट किये हैं:- " मैं पहिले प्रतिमाको नहीं मानता था, और अब मानने लगा हूँ, इसमें कुछ पक्षपातका कारण नहीं, परन्तु मुझे उसकी सिद्धि मालूम हुई, इसलिये मानता हूँ । उसकी सिद्धि होनेपर भी इसे न माननेसे पहिलेकी मान्यता भी सिद्ध नहीं रहती, और ऐसा होनेसे आराधकता भी नहीं रहती । मुझे इस मत अथवा उस मतकी कोई मान्यता नहीं, परन्तु रागद्वेषरहित होने की परमाकांक्षा है, और इसके लिये जो जो साधन हो उन सबकी मनसे इच्छा करना, उन्हें कायसे करना, ऐसी मेरी मान्यता है, और इसके लिये महावीरके वचनोंपर पूर्ण विश्वास है । " अन्तमें राजचन्द्र अनेक प्रमाणोंसे प्रतिमापूजनकी सिद्धि करने के बाद, ग्रन्थके ' अन्तिम अनुरोधमें' अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए लिखते हैं66 अब इस विषयको मैंने संक्षेपमें पूर्ण किया । केवल प्रतिमासे ही धर्म है, ऐसा कहने के लिये अथवा प्रतिमापूजनकी सिद्धिके लिये मैंने इस लघुग्रंथ में कलम नहीं चलाई। प्रतिमा-पूजन के लिये मुझे जो जो प्रमाण मालुम हुए थे मैंने उन्हें संक्षेपमें कह दिया है। उसमें उचित और अनुचित देखनेका काम शास्त्रविचक्षण और न्याय -संपन्न पुरुषोंका है। और बादमें जो प्रामाणिक मालूम हो उस तरह स्वयं चलना और दूसरों को भी उसी तरह प्ररूपण करना वह उनकी आत्माके ऊपर आधार रखता है। इस पुस्तकको मैं प्रसिद्ध नहीं करता; क्योंकि जिस मनुष्यने एकबार प्रतिमा-पूजनका विरोध किया हो, फिर यदि वही मनुष्य उसका समर्थन करे तो इससे प्रथम पक्षवालोंके लिये बहुत खेद होता है, और यह कटाक्षका कारण होता है । मैं समझता हूँ कि आप भी मेरे प्रति थोड़े समय पहिले ऐसी ही स्थितिमें आ गये थे । यदि उस समय इस पुस्तकको मैं प्रसिद्ध करता तो आपका अंतःकरण अधिक दुखता और उसके दुखानेका निमित्त मैं ही होता, इसलिये मैंने ऐसा नहीं किया । कुछ समय बीतने के बाद मेरे अंतःकरणमें एक ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि तेरे लिये उन भाईयों के मनमें संक्लेश विचार आते रहेंगे, तथा तूने जिस प्रमाणसे इसे माना है, वह भी केवल एक तेरे ही हृदयमें रह जायगा, इसलिये उसकी सत्यतापूर्वक प्रसिद्धि अवश्य करनी चाहिये । इस विचारको मैंने मान लिया । तब उसमेंसे बहुत ही निर्मल जिस विचारकी प्रेरणा हुई, उसे संक्षेप में कह देता हूँ । प्रतिमाको मानो, इस आग्रहके लिये यह पुस्तक बनाने का कोई कारण नहीं है; तथा उन लोगों के प्रतिमाको मानने से मैं कुछ धनवान तो हो ही नहीं जाऊँगा ।
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दिगम्बर श्वेताम्बरका समन्वय
राजचन्द्रजीने दिगम्बर श्वेताम्बरका भी समन्वय किया था। उनका स्पष्ट कहना था कि दिनम्बर-श्वेताम्बर आदि मतदृष्टिसे सब कल्पना मात्र है। राग, द्वेष और अज्ञानका नष्ट होना ही जैनमार्ग है। कविवर बनारसीदासजीके शब्दोंमें राजचन्द्र कहते थे:
घट घट अन्तर जिन बसे घट घट अन्तर जैन । मति-मदिरा के पानसी मतवारा समुझे न ॥
—अर्थात् घट घट में जिन बसते हैं और घट घटमें जैन बसते हैं, परन्तु मतरूपी मदिरा के पानसे मत हुआ जीव इस बातको नहीं समझता। वे लिखते है: - ' जिससे मतरहित-कदाग्रहरहित-हुआ
१२०-१३६-२०.