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राजचन्द्र और उनका संक्षिप्त परित्रय समकितका सचा सचा विचार करे तो नौवे समयमें केवलशान हो जाय, नहीं तो एक भवमें केवलशान होता है, और अन्तमें पन्द्रहवें भवसे तो केवलज्ञान हो ही जाता है । इसलिये समकित सर्वोत्कृष्ट है।'
. राजचन्द्र सम्यक्त्वसे केवलज्ञानको कहलाते हैं:-मैं इतनातक कर सकता हूँ कि जीवको मोक्ष पहुँचा दें, और तू इससे कुछ विशेष कार्य नहीं कर सकता। तो फिर तेरे मुकाबलेमें मुझमें किस बातकी न्यूनता है। इतना ही नहीं किन्तु तुझे प्राप्त करने में मेरी जरूरत रहती है।
इसके अतिरिक्त राजचन्द्रजीने जैनधर्मविषयक अन्य भी अनेक महत्वपूर्ण विकल्प उपस्थित किये है। उनमेसे कुछ निम्न प्रकारसे है
(१) धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकायके अरूपी होनेपर भी वे रूपी पदार्थको सामर्थ्य प्रदान करते है और इन तीन द्रव्योंको स्वभावसे परिणामी कहा है, तो ये अरूपी होनेपर भी रूपीको कैसे सहायक हो सकते है.
(२) धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय एकक्षेत्र-अवगाही है, और उनका स्वभाव परस्पर विरुद्ध है, फिर भी उनमें गतिशील वस्तुके प्रति स्थिति-सहायतारूपसे, और स्थितिशील वस्तुके प्रति गति-सहायतारूपसे विरोध क्यों नहीं आता !
(३) धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और एक आत्मा ये तीनों असंख्यात प्रदेशी हैं, इसका क्या कोई दूसरा ही रहस्य है?
(४) धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकायकी अवगाहना अमुक अमूर्तीकारसे है, ऐसा होने में क्या कुछ रहस्य है?
(५) लोक-संस्थानके सदा एकस्वरूप रहनेमें क्या कुछ रहस्य है ? (६) एक तारा भी घट-बढ़ नहीं सकता, ऐसी अनादि स्थितिको किस कारणसे मानना चाहिये।
(७) शाश्वतताकी व्याख्या क्या है ? आत्मा अथवा परमाणुको कदाचित् शाश्वत मानने में मूलद्रव्यत्व कारण है; परन्तु तारा, चन्द्र, विमान आदिमें वैसा क्या कारण है ?
(८) अमूर्त्तता कोई वस्तु है या अवस्तु ! (१) अमूर्तता यदि कोई वस्तु है तो वह कुछ स्थूल है या नहीं? (१०) मूर्त पुगलका और अमूर्त जीवका संयोग कैसे हो सकता है।
(११) धर्म, अधर्म और आकाश इन पदार्थों की द्रव्यरूपसे एक जाति, और गुणरूपसे भिन्न भिन्न जाति मानना ठीक है, अथवा द्रव्यत्वको भी भिन्न भिन्न मानना ठीक है?
१६४३-५६२,३-२९.
२७५३-७..-३१; इसके अतिरिक्त केवलज्ञानविषयक मान्यताओंके लिये देखो ६१२-४९७-२९, ६१४-५०२-२९, ६६०-६१८-२९, ७५३-६९५,६-३१.
३ धर्मासिकाय और अधर्मास्तिकायक विषयमें पूर्व विद्वानोंने भी इसी तरहके विकल्प उठाये है। उदाहरणके लिये भगवतीसूत्रमै गौतम जब महावीर भगवान् से धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकायके विषयमें प्रभ करते है तो महावीर धर्म, धर्मास्तिकाय, प्राणातिपातविरमण, मृषावादविरमण आदिको; तथा अधर्म, अधर्मास्तिकाय, प्राणातिपात, मृषावाद आदिको एकार्थ-योतक बताते हैं । भगवतीके टीकाकार अभयदेव परिने भी धर्म-अधर्मके उक्त दोनों अर्थ लिखे हैं। इसी तरह, लगता है कि सिद्धसेन दिवाकर भी धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकायके अलग द्रव्य माननेकी आवश्यकता नहीं समझते । वे निश्चयद्वात्रिंशिकामे लिखते हैं:
प्रयोगविसमाकर्म तदभावस्थितिस्तथा ।
लोकानुभाववृत्तान्तः किं धर्माधर्मयोः फलम् ॥ २४॥ -अर्थात् प्रयोग और विससा नामक क्रियासि गति स्थितिका काम चल जाता है, फिर धर्म अधर्मकी क्या आवश्यकता है।
इस संबंध में देखो पं. बेचरदासका जनसाहित्यसंशोधक (३-१-३९) में गुजराती लेख; तथा सकका इन्डियन हिस्टोरिकल कार्टली कलकचा, जिल्द १,१९५३ पृ. ७९२ पर अंग्रेजी लेख.