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. शंकामोंका समाधान (२) द्रव्य किसे कहते हैं । गुण-पर्यायके बिना उसका दूसरा क्या स्वरूप है।
(१३) संकोच-विकासवाली जो आत्मा स्वीकार की है, वह संकोच विकास क्या अरूपीमें हो सकता है तथा वह किस तरह हो सकता है!
(१४) निगोद अवस्थाका क्या कुछ विशेष कारण है।
(१५) सर्व द्रव्य, क्षेत्र आदिकी जो प्रकाशकता है, आत्मा तद्रूप केवलहान-स्वभाषी है, या निजस्वरूपमें अवस्थित निजज्ञानमय ही केवलज्ञान है?
(१६) चेतन होनाधिक अवस्थाको प्राप्त करे, उसमें क्या कुछ विशेष कारण है! निजस्वभावका ? पुदलसंयोगका ? अथवा उससे कुछ मिन ही !
. (१७) जिस तरह मोक्षपदमें आत्मभाव प्रगट हो यदि उस तरह मूलद्रव्य मानें, तो आस्माके लोकन्यापक-प्रमाण न होनेका क्या कारण है।
(१८) शान गुण है और आत्मा गुणी है, इस सिद्धांतको घटाते हुए आत्माको शानसे कथंचित् मिन किस अपेक्षासे मानना चाहिये । जडत्वभावसे अथवा अन्य किसी गुणकी अपेक्षासे!
(१९) मध्यम-परिमाणवाली वस्तुकी निस्यता किस तरह संभव है। (१०) शुद्ध चेतनमें अनेककी संख्याका भेद कैसे घटित होता है।
(२१) जीवकी व्यापकता, परिणामीपना, कर्मसंबंध, मोषक्षेत्र-ये किस किस प्रकारसे घट सकते हैं। उसके विचारे बिना तथारूप समाधि नहीं होती।
(२२) केवलज्ञानका जिनागममें जो प्ररूपण किया है, वह यथायोग्य है ? अथवा वेदान्तमें जो प्ररूपण किया है वह यथायोग्य है।
(२३) मध्यम परिमाणकी नित्यता, क्रोध आदिका पारिणामिक माव-ये आत्मामें किस तरह घटते हैं!
(२४ ) मुक्तिम आत्मा घन-प्रदेश किस तरह है। (१५) अभव्यत्व पारिणामिक भावमें किस तरह घट सकता है।
(२६) लोक असंख्य प्रदेशी है और द्वीप समुद्र असंख्याती हैं, इत्यादि विरोधका किस तरह समाधान हो सकता है? कुछ प्रश्नोंका समाधान
इनसे बहुतसे विकल्पोंके ऊपर, मालूम होता है राजचन्द्रजी जैनमार्ग ' नामक निबंध (६९०-६३२-३०) विचार करना चाहते थे। कुछ विकल्पोंका उन्होंने समाधान भी किया है:
भगवान् जिनके कहे हुए लोकसंस्थान आदि भाव आध्यात्मिक दृष्टिसे सिद्ध हो सकते हैं। चक्रवर्ती आदिका स्वरूप मी आध्यात्मिक दृष्टिसे ही समझमें आ सकता है।
मनुष्यकी ऊँचाई प्रमाण आदिमें भी ऐसा ही है। काल प्रमाण आदि भी उसी तरह घट सकते है। सिखस्वरूप भी इसी भावसे मनन करने योग्य मालूम होता है।
निगोद आदि भी उसी तरह घट सकते हैं। लोक शब्दका अर्थ आध्यात्मिक है। सर्वज्ञ शब्दका समझाना बहुत गृह है। धर्मकथारूप चरित आध्यात्मिक परिभाषासे अलंकृत मालूम होते हैं। जम्बूद्वीप आदिका वर्णन भी आध्यात्मिक परिभाषासे निरूपित किया मालूम होता है।
इसी तरह राजचन्द्रजीने आठ रुचक प्रदेश, चौदह पूर्वधारीका शान, प्रत्याख्यान-दुष्प्रत्याख्यान, संन्यास और वंशवृद्धि, कर्म और औषधोपचार, टाणांगके आठ वादी आदि अनेक महत्त्वपूर्ण प्रमोंका स्वतंत्र बुद्धिसे समाधान करके अपने जैनतत्वज्ञानके असाधारण पाण्डित्य और विचारकताका परिचय दिया है।
१ देखो ६.६.४९५, ६-२९६१३,१४-४५७,८,९-२६५४,५६,५८-५०१-२९, २६४२-५२०-२९