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राजचन्द्र और उनका संक्षिप्त परिचय
आत्मविकासकी उच्च दशा
- राजचन्द्रजी इस समय ' अथाह ब्राझी वेदना' का अनुभव करते हैं। तस्वशानकी गुफाका दर्शन कर''वे अलखलय'-'ब्रह्मसमाधि' में लीन हो जाते हैं। धर्मेच्छुक लोगोका पत्र-व्यवहार उनै बंधनरूप हो उठता है; स्याद्वाद, गुगस्थान आदिकी 'सिर घुमा देनेवाली 'चर्चाओंसे उनका चित्त विरक्त हो जाता है और तो और वे अपना निजका भान भूल बैठते हैं; अपना मिथ्यानामधारी, निमित्तमात्र, अन्यतदशा, सहजस्वरूप आदि शन्दौसे उल्लेख करते हैं; और कभी तो उल्लासमै आकर अपने आपको ही नमस्कार कर लेते हैं। आत्मदशामें राजचन्द्र इतने उन्मत्त हो जाते हैं कि वे सर्वगुणसम्पन भगवान्तकमे भी दोष निकालते हैं; और तीर्थंकर बननेकी, केवलशान पानेकी, और मोक्ष प्राप्त करनेतककी इच्छासे निहि हो जाते हैं । कबीर आदि संतोंके शब्दों में राजचन्द्रकी यह ' अकथ कथा कहनेसे कही नहीं जाती और लिखनेसे लिखी नहीं जाती। उनके चित्तकी दशा एकदम निरंकुश हो जाती है। इस अव्यक्त दशामें उन्हें सब कुछ अच्छा लगता है और कुछ भी अच्छा नहीं लगता।' उन्हें किसी भी कामकी स्मृति अथवा खबर नहीं रहती, किसी काममै यथोचित उपयोग नहीं रहता, यहाँतक कि उन्हें अपने तनकी भी सुध-बुध नहीं रहती । कबीर साहबने इसी दशाका " हरिरस पीया जानिये कबहुँ न जाय खुमार । मैंमन्ता घूमत फिरे नाहीं तनकी सार"-कहकर वर्णन किया है । राजचन्द्रजीकी यह दशा जरा उन्हींके शन्दोंमें सुनिये:" एक पुराण-पुरुष और पुराण-पुरुषकी प्रेम संपत्ति बिना हमें कुछ भी अच्छा नहीं लगता। हमें किसी भी पदार्थमें बिलकुल भी रुचि नहीं रही; कुछ भी प्राप्त करनेकी इच्छा नहीं होती; व्यवहार कैसे चलता है, इसका भी भान नहीं; जगत् किस स्थितिमें है, इसकी भी स्मृति नहीं रहती; शत्रु-मित्रमै कोई भी भेदभाव नहीं रहा; कौन शत्रु और कौन मित्र है, इसकी भी खबर रक्खी नहीं जाती, हम देहधारी है या और कुछ, जब यह याद करते हैं तब मुश्किलसे जान पाते हैं। हमें क्या करना है, यह किसीकी मी आ अमारी वात प्रत्यक्ष प्रमाणे देखाशे. तीर्थकरदेवना संबंधमां अमने वारंवार विचार रह्या करे के के तेमणे 'अधिष्ठान' वगर आ जगत् वर्णव्यु छे तेनु शु कारण तेने 'अधिष्ठान' नुं ज्ञान नहीं थयु होय ? अथवा 'अधिष्ठान' नहींज होय-अथवा कोई उद्देशे छुपायुं हशे १ अथवा कथनभेदे परंपराये नहीं समज्याथी' अधिष्ठान' विषेर्नु कथन लय पाम्युं हशे ? आ विचार थया करे छे. जोके तीर्थकरने अमे मोटा पुरुष मानीए छीए; तेने नमस्कार करीए छीए; तेनां अपूर्व गुण ऊपर अमारी परम भाक्ति छे; अने तेथी अमे धारीए छीए के अधिष्ठान तो तेमणे जाणेलु–पण लोको परंपराए मार्गनी भूलथी लय करी नाख्यु । जगतनुं कोई अधिष्ठान होवू जाइए-एम षणा खरा महात्माओगें कथन छे, अने अमे पण एमज कहीए छीए के अधिष्ठान छे-अने ते अधिष्ठान हरी भगवान् छे-जेने फरी फरी हृदयदेशमा जोइए छीए.
तीर्थंकरदेवने माटे सखत शब्दो लखायो छे, माटे तेने नमस्कार. -यह पत्र, पत्रांक १९१ काही अंश है। इस पत्रका यह भाग 'श्रीमद् राजचन्द्र के अबतक प्रकाशित किसी भी संस्करणमें नहीं छपा। यह मुझे एक सजन मुमुक्षुकी कृपासे प्राप्त हुआ हैइसके लिये लेखक उनका बहुत आभारी है। इस पत्रसे राजचन्द्रजीके विचारोंके संबंधी बहुत कुछ स्पष्टीकरण होता है।
१ देखो ५६-१६४-२१, ९३-१९०-२३.
२ आनन्दघनजीने भी अपने आपको आनन्दधनचौबीसी (१६-१३ ) में एक जगह नमस्कार किया है:
अहो अहो हुं मुजने कहुं नमो मुज नमो मुजरे।
अमित फळ दान दातारनी जेहनी भेट यई तुज रे॥ ३१४४-२१५-२३. ४ देखो १६१-२२६-२४, १८४-२३९-२४, २३९-२६७-२४.