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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक -ग्रंथ
रागद्वेषविनिर्मुक्ता-र्हत् कृतं च कृपा परम् । प्रधानं सर्वधर्माणां, जैनं जयति शासनम् ॥ २ ॥
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जैनदर्शन दया, आचार, क्रिया और वस्तुभेद के रूप से चारों भागों में विभक्त है । इसकी नींव स्याद्वाद अर्थात् अनेकांतवाद पर ठहरी हुई है। प्रमाणपूर्वक जैनशास्त्रों में स्याद्वाद सिद्धान्त का इतने अच्छे ढंग से प्रतिपादन किया गया है कि जिसके संबंध में विद्वानों को आश्चर्यचकित होना पड़ता है | जैनदर्शन में स्याद्वाद की व्याख्या करते हुए बतलाया है कि " एकस्मिन् वस्तुनि सापेक्षरीत्या नाना धर्मस्वीकारो हि स्याद्वादः एक वस्तु में अपेक्षापूर्वक विरुद्ध जुदा जुदा धर्मों को स्वीकार करना ही स्याद्वाद है । वस्तुमात्र में सामान्य और विशेष धर्म रहा हुआ है । एक ही वस्तु में अपेक्षा से अनेक धर्मों की विद्यमानता स्वीकार करने का नाम स्याद्वाद है । प्रत्येक वस्तु की अपेक्षा से नित्यानित्य मानना पड़ता है । दर्शनवाद का अध्ययन, मनन व परिशीलन करनेवाले अच्छी तरह समझते हैं कि प्रत्येक दर्शनकार को एक अथवा दूसरे रूप में स्याद्वाद को स्वीकार करना ही पड़ता है। कई व्यक्ति स्याद्वाद का यथास्थित स्वरूप न समझने के कारण इसको 'संशयवाद ' भी कहने की बलक्रिया करते हैं; किंतु वस्तुतः ' स्याद्वाद ' 'संवाद' नहीं है । संशय तो उसे कहते हैं कि एक वस्तु कोई निश्वय रूप से न समझी जाय । अंधकार में किसी लम्बी वस्तु को देख कर विचार उत्पन्न हो कि यह रस्सी है अथवा सांप । अथवा जंगल की अंधेरी रात्रि में दूर से लकड़ी के ठूंठ के समान किसी को देख कर विचार हो कि 'यह मनुष्य है या लकडी' इसका नाम संशय है । परंतु स्याद्वाद में तो ऐसा नहीं है । संसार में सब पदार्थों में अनेक धर्म रहे हुए हैं। यदि सापेक्षरीत्या इन धर्मों का अवलोकन किया जावे तो उसमें उन धर्मों की सत्यता अवश्य ज्ञात होगी । आत्मा जैसी नित्यमानी जानेवाली वस्तु को भी यदि हम स्याद्वाद दृष्टि से देखेंगे तो इसमें भी नित्यत्व, अनित्यत्व आदि धर्म मालूम होंगे ।
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इस तरह तमाम वस्तुओं में सापेक्षरीत्या अनेक धर्म होने के कारण ही श्रीमान् उमास्वातिवाचकने द्रव्य का लक्षण करते हुए बताया है कि 'उत्पाद-व्यय- प्रौव्ययुक्तं सत्' । किसी भी द्रव्य के लिये यह लक्षण निर्दोष प्रतीत होता है ।
आत्मा यद्यपि द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से नित्य है तथापि इसे पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से ' अनित्य ' ही मानना पड़ेगा। जैसे कि एक संसारस्थ जीव, पुण्य की अधिकता के समय जब मनुष्ययोनि को छोड़ कर देवयोनि में जाता है उस समय देवगति में उत्पाद ( उत्पत्ति ) और मनुष्य पर्याय का व्यय ( नाश ) होता है; धर्म तो स्थायी ( धौव्य ) ही रहता है अर्थात् यदि आत्मा को
परंतु दोनों गतियों में चैतन्य - एकान्त नित्य ही माना जाय