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और जैनाचार्य
श्री भद्रबाहु श्रुतकेवली । अन्तरकाल पाया जाता है । अतः दोनों का ऐक्य तब तक सम्भव नहीं हो सकता जब तक इस सुदीर्घ अन्तरकाल को दूर न किया जावे ।
एक बात और भी उल्लेखनीय है । दिगम्बर परम्परा के इन द्वितीय भद्रबाहु के गुरु का नाम यशोभद्र था और श्वेताम्बर परम्परा में श्रुतकेवली भद्रबाहु के गुरु का नाम यशोभद्रसूरि था। श्वेताम्बर परम्परा में जम्बूस्वामि के पश्चात् प्रभवस्वामि, शय्यंभवसूरि, यशोभद्रसूरि, संमृतिविजयजी और भद्रबाहुस्वामि ये पांच श्रुतकेवली हुए। श्री यशोभद्रसूरि के दो शिष्य थे, संभूतिविजय और भद्रबाहु । यद्यपि पट्टावलियों में संभूतिविजय जी के पश्चात् भद्रबाहु को युगप्रधान पद दिया गया है, किन्तु श्री हेमचन्द्रसूरिने परिशिष्ट पर्व में लिखा है कि श्री यशोभद्रसूरि अपना आचार्य पद दोनों को ही प्रदान कर गये थे।
हम ऊपर लिख आये हैं कि श्वेताम्बर परम्परा में श्रुतकेवली भद्रबाहु की शिष्यपरम्परा का अभाव है। परिशिष्ट पर्व में लिखा है कि उनके चार शिष्य थे, किन्तु कठोर शीत से उन चारों की मृत्यु हो गई।
कल्पसूत्र की स्थविरावली की विस्तृत वाचना में भद्रबाहु के चार शिष्यों के नाम इस प्रकार बतलाये हैं
गोदास, अग्निदत्त, यज्ञदत्त, और सोमदत्त । गोदास से गोदासगण निकला। उस गण की चार शाखाएं थीं-तामालितिया, कोडीवरिसिया पौडवद्धणिया, दासी खवडिया। गोदासगण से इन चार शाखाओं का उद्गम कैसे और इनकी आगे क्या दशा हुई ! यह हम नहीं जान सके।
किन्तु दिगम्बर परम्परा में भद्रबाहु श्रुतकवली का जन्म पौण्डूवर्धन देश के कोटीपुर नगर में हुआ बतलाया है । उक्त चार शाखाओं में से दो शाखाएं पौंडूबद्धणिया और कोडी वरिसिया भद्रबाहु के जन्मस्थान का ही स्मरण कराती हैं।
डा० भण्डारकरने लिखा था-पुण्ड दक्षिणीकवीले थे जो उत्तरी बंगाल में आकर बसे थे और उन्होंने अपनी राजधानी का नाम पुण्ड्वर्धन रखा था। तथा बंगाल के दिनाजपुर जिल्ले में स्थित बांगढ़ को उन्होंने कोटि वर्ष बतलाया था। इन्हीं से कल्पसूत्र में निर्दिष्ट गोदास गण की शाखायें निकली थीं। ऐसा भी उन्होंने लिखा था। डा. भण्डाकर
१. सूरिः श्रीमान यशोभद्रः श्रुतनिध्योस्तयोर्द्वयोः ।
स्वमाचार्यत्वमारोप्य परलोकमसाधयत् ॥ ४ ॥ सर्ग ६ । २. अन्नत्स ऑफ भण्डारकर रिसर्च इन्स्टीट्यूट, जि. १२, भा. २, पृ. १.६।