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और जैनाचार्य
काशाह और उनके अनुयायी ।
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रचना उपलब्ध नहीं है । पर उनके मत के विरोध में जो अनेकों ग्रन्थ लिखे गये उनसे उनके व्यक्तित्व की कुछ झांकी मिलही जाती है। दिगम्बर तारणस्वामी के ग्रन्थ मिलते हैं। उनकी भाषा बड़ी अटपटी और विचार भी अव्यवस्थित हैं । मूर्तिपूजा विरोधी आन्दोलन को समयने भी साथ दिया । एक ओर चारों तरफ मूर्त्तियें मुसलमानों द्वारा तोड़ी जा रही थीं, दूसरी ओर मूर्तिपूजा में होनेवाली क्रियाओं में हिंसादि को बताया गया। कुछ आडम्बर भी बढ़ चुका था । ऐसे ही कई कारणों से उस आन्दोलन को बल व सफलता प्राप्त हुई ।
सर्वप्रथम हम लंकाशाह के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में जो प्राचीन उल्लेख प्राप्त हुए हैं, उन्हें उपस्थित करते हुए उनके मत एवं अनुयायिओं के सम्बन्ध में सप्रमाण विचार करेंगे, "जैसा कि उपर कहा गया है । लंकाशाह के सम्बन्ध में उनके विरोध में लिखे गये साहित्य में
अधिक तथ्य मिलते हैं । लंकाशाह ने स्वयं कुछ लिखा नहीं, इस लिए उनकी मान्यताओं के सम्बन्ध में विरोधी साहित्य ही एक मात्र आधार है । आश्चर्य की बात है कि लंकाशाह के अनुयायी लखमसी, भाणा आदि किसी भी समसामयिक व्यक्ति ने अपने उपकारी पुरुष की जीवनी और सिद्धान्त के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं लिखा । लुंकाशाह के बाद सत्तर वर्ष तक उनके किसी भी अनुयायी ने इनके सम्बन्ध में कुछ भी लिखा हो ऐसा ज्ञात नहीं होता, जब कि विरोधी साहित्य उनके समकालीन या बहुत निकटवर्त्ती ही प्राप्त है । संवत् के उल्लेखवाली सबसे पुरानी विरोधी रचना गुजरात के विशिष्ट कवि लावण्यसमय की सिद्धान्त चौपाई है जो सं. १५४३ के कार्त्तिक शुक्ला ८ को बनाई गई थी । उसमें लंकाशाह के सम्बन्ध में लिखा गया है
सई उगणीस वरिस थया, पणचालीस प्रसिद्ध | त्यार पछी लुकु हुअउ, असमंजस तिण कीध ॥ लुंका नामइ मुंहतलउ, हूंतु एकइ गाम आवी खोटि बिहुं पर, भागु करम विरामि । रलइ खपड़ खीजइ घणुं, हाथि न लागइ काम | तिणि आदरिडं फेरवी, कर्म लीहानु ताम आगम अरथ अजाण तुं, मंडई अनरथ मूलि । जिनवर वाणी अवगिणी, आप करिडं जग धूलि ।
१. जन्म का संवत् वि. १४७२ का० शु० १५ भी मिलता है । २. जाति प्राग्वाट थी यह अधिक विश्वस्त है ।
३. लंका सिरोही राज्यान्तर्गत अरहटवाड़ा के निवासी थे ।
देखिये प्राग्वाट इतिहास, पृ० ३५८ संपादक - दौलतसिंह लोढ़ा.