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जैनधर्म की ऐतिहासिक खोज
मुनि श्री सुशीलकुमारजी भारत की संस्कृति सामाजिक संस्कृति है। आज जो भारतीय विचारों की एकता दृष्टिगोचर हो रही है-आत्मा-परमात्मा, प्रकृति-माया, अवतार-तीर्थकर, बुद्ध-पुनर्जन्म, भक्तियोग, निर्वाण और मोक्ष वैषयिक, भारतीय धर्मों में पारस्परिक समानता दिखाई पड़ रही है। इसके पीछे बहुत लम्बी विचारपरम्परा काम कर रही है । इसका मूल आधार आर्य-सभ्यता का मूलस्रोत नहीं हो सकता; क्योंकि उसमें ऐतिहासिक विरोध है। अपितु हमारे देश की मौलिक एकता का कारण लाखों वर्षों ( अथवा अगणित समयों ) से चले आ रहे वे संघर्ष हैं जो भारत में रहनेवाली विभिन्न जातियों द्वारा लड़े गये ।
बार-बार के युद्ध, सम्पर्क, समझौते, वैचारिक-शास्त्रार्थ एवं प्राकृतिक संकटोंने आर्यों और आर्येतरों को समन्वित किया है।
___ भारत की सामाजिक, भौगोलिक, व्यावसायिक और दैक्षिक एकता का निर्माण विविध विचारोंवाली जातियों के संगम से उद्भूत हुवा है । यदि आप इसके अन्तर्तम रहस्य को जानने की आकाङ्क्षा रखते हैं तो निश्चित है कि आपको भारतीय इतिहास जानने की अपेक्षा विभिन्न विचार एवं विविध देवोपासना की पद्धतियों का अध्ययन करना पड़ेगा ।
प्रारम्भ से हमारे देश में श्रमण और ब्राह्मण धारायें चली आ रही हैं। ब्राह्मण कर्मकाण्ड पर, यज्ञ पर एवं संस्कार पर विश्वास करता आया है। श्रमण व्रत पर, अहिंसा पर तथा त्याग पर विश्वास करता रहा है । दोनों का ( श्रमण एवं ब्राह्मग ) मूल एक हो अथवा विभिन्न; किन्तु यह निश्चित है कि यज्ञ और व्रत भारत के धर्मों के दो मध्य-बिन्दु अवश्य रहे हैं । इन दोनों तत्वों का प्रभाव भारत के जैन, वैदिक और बौद्ध धर्मों पर तो पड़ा ही है। किन्तु एशिया के भूखण्डों से प्रसृत होनेवाले तमाम धर्मों के आचार और विचारवाद पर भी छाया हुवा है। अगर ब्राह्मण-श्रमण धारा का साधु एवं गृहस्थ के नाते इस प्रकार विभाजन हो कि संसार के वे कतिपय कौन धर्म जिनमें साधुओं का स्थान सर्वोपरि है और दूसरे वे कौन धर्म जिनमें गृहस्थों की सत्ता सर्वोपरि है तो यह कहना पड़ेगा कि ब्राह्मण, पारसी एवं इस्लाम धर्मों में साधुसंस्था सर्वोच्च सत्ता नहीं है । वैदिक क्रियाकाण्डों में ब्राह्मण, पारसी धर्मकृत्यों में पुरोहित और मुसल्मानी धर्म के उपक्रमों में जो स्थान मुल्ला-मुफ्ती तथा
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