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साहित्य
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ऐसे बढ़े तो कहा भयो नर, छोरि चले उठि अन्त छरे ही । धाम खरे रहे, काम परे रहे, दाम डरे रहे, ठाम घरे ही ॥ अनुप्रास - लालित्य अद्भुत है और भाव नैसर्गिक । विशेष परिचय के लिये अनेकान्त वर्ष १२।१० मार्च १९५४ देखिये ।
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कनककुशल और कुंअरकुशल
तपागच्छीय कनककुशल विहार करते हुए कच्छ में पधारे। कच्छ-नरेश देशल के पुत्र लखपतने इनको गुरूरूप में स्वीकार किया । राउल लखपतने आपकी तत्त्वावधानता में व्रजभाषा की शिक्षा एवं छन्द और काव्यों के अध्ययन के अर्थ एक विद्यालय संस्थापित किया । आपकी परम्परा में हुये जीवनकुशल की अध्यक्षता में वि. सं. १९३२ में यह विद्या. लय चल रहा था जिसका उल्लेख केशवजी द्विवेदीरचित कच्छ के इतिहास से मिलता है । कुंअरकुशल कनककुशल के योग्य शिष्य थे । कनककुशलने राउल लखपत के लिए 'लखपत - मञ्जरी नाममाला' नामक २०२ पद्यों का ग्रंथ लिखा है। इसमें भुजनगर और महाराजा का वर्णन १०२ पद्यों में तथा शेष पद्यों में नाममाला है। कुंअर कुशलने 'लखपत - मञ्जरी नाममाला ' नाम का ही फिर दूसरा ग्रन्थ लिखा है । प्रतीत होता है पहली नाममाला संक्षिप्त रही है, अतः दूसरी उसको पूर्ण करने की दृष्टि से और लिखी गई । कुंअरकुशल के रचे हुए अलंकार विषयक ग्रंथ 'लखपत जससिंधु', 'पारसातनाममाला ' नामक पारसी - त्रज-कोष तथा ‘ लखपतपिंगल ' और ' गौड़पिंगल ' नामक ग्रन्थ हैं ।
जैन विद्वानों की यह व्रज - सेवा ब्रजमण्डल से सुदूर कच्छ-भुज प्रदेश में कम महत्त्व की नहीं है । इनका रचना - काल सं. १७७४ से १८२१ है अर्थात् वि. १८-१९ वीं शताब्दी । विशेष परिचय के लिये 'जीवनसाहित्य' अंक फरवरी, मार्च, जून १९५३ में देखिये । पं० दौलतराम कासलीवाल
आप वि. शताब्दी १८-१९ वीं में हुये हैं । आप जयपुर - राज्यान्तर्गत वसवा ग्रामनिवासी आनन्दरामजी के पुत्र थे । आप को जैन पुराणों का गंभीर अभ्यास था और आप उच्च श्रेणी के टीकाकार कहे जाते हैं। आप पर पं० भूधरदासजी की आध्यात्मिक सरलता एवं विद्वत्ता का गहरा प्रभाव पड़ा था । यह आपने स्वयं अपनी कृतियों में स्वीकार किया है । आप उदयपुर महाराणा जगतसिंहजी द्वितीय के समय में जयपुर नरेश की ओर से उदयपुर में वकील के पद पर आरूढ़ थे। आपने 'पुण्याखव कथाकोष ' की टीका वि० सं०
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