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भीमद् विजयराजेन्द्रसूरि स्मारक-अंथ हिन्दी जैन ग्रंथों का एक भी नमूना नहीं मिलजा । त्रिपिटक पर सिंहल भाषा में कितनी ही अट्ठ कथायें ( भाष्य ) लिखी गई थीं, जिनके नामों का उल्लेख मिलता है, पर उनका एक भी पृष्ठ नहीं मिला है। बौद्धोंने वस्तुतः प्राकृत से बहुत काम नहीं लिया, नहीं तो उनके कुछ प्राकृत काव्य तो अवश्य मिलते । हां, अपभ्रंश-युग (६००-१२०० ई० ) में सिद्धोंने भारतीय बौद्धजगत् का ध्यान अपनी ओर बहुत जोर से आकृष्ट किया । बहुत सी बातों में क्रान्तिकारी ये लोग भाषा की रूढियों को मानने के लिये तैयार नहीं थे। इन्होंने अपनी वाणियों को अपभ्रंश के दोहों, चौपाइयों और दूसरे छन्दों में लिखा । आदि-सिद्ध सरहपा आठवीं सदी के मध्य में विद्यमान थे, जिन्हें द्वितीय बुद्ध की भाँति सम्मानित किया जाता था, और तिब्बत में आज भी माना जाता है । सिद्धों के प्रयत्न से अपभ्रंश में बहुत बड़ा साहित्य तैयार हो गया, जो प्रायः सभी पद्यमय था । अब भी छोटे-मोटे सौसे अधिक अपभ्रंश के ये ग्रंथ तिब्बती भाषा के अनुवाद के रूप में मिलते हैं, परन्तु मूल रूप में सरहपा के दोहाकोशचर्यागीति ', कण्हपा का 'दोहाकोश', तिल्लोपा का ' दोहाकोश' और कुछ थोड़े से गीतों के अतिरिक्त और नहीं मिलता। भारत बौद्धों से सात शताब्दी पहले ही पिण्ड छुड़ा चुका था; इस लिये यहां उनके ग्रंथों के मिलने की संभावना नहीं। इसके अपवाद जनभण्डार रहे हैं, जिन्हों ने अपभ्रंश के तो नहीं, किन्तु संस्कृत के कितने ही अनमोल बौद्धग्रंथों की रक्षा की । तिब्बत में ले जा कर इन ग्रंथों के अनुवाद ११ वी-१२ वीं-१३- वीं शताब्दियों में हुये थे । जिन तालपत्रों से अनुवाद किया गया, उनकी सैंकड़ों मूल प्रतियां वहां के बिहारों में इन पंक्तियों के लेखक को देखने में आई। अभी भी आशा है कि अनुसन्धान करने पर बहुत से तालपत्र प्राप्त होंगे। सम्भव है, उन में सिद्धों के अपभ्रंश के ग्रंथ भी मिल जाये।
बौद्ध-धर्म के उत्थानके समय ब्राह्मणों के स्थिरतावादी धर्म के विरुद्ध और भी कई विचारक पैदा हुये। ये सभी जनहित के समर्थक तथा जनता को उसकी भाषा द्वारा अपने मार्ग पर ले जाने का प्रयत्न करते थे, इस लिये सभी जन-निरुक्तिके पृष्ठपोषक थे। इन महान् पुरुषो में बुद्ध और महावीर दोही के अनुयायी आज बच रहे हैं, जिन में बौद्ध प्रायः सभी भारत से बाहर हैं, और जैन सभी भारत के भीतर । जैन धर्म के प्रवर्तक श्रमण महावीर श्रमण गौतम (बुद्ध) की तरह ही जन-कल्याण के लिये आज के हिन्दी भाषाभाषी क्षेत्र में विचरते, अपने उपदेशों द्वारा लोगों का पथ-प्रदर्शन करते थे । बुद्ध-वचनों की तरह महावीर के वचनों को भी लोग उस समय अपनी भाषा में कंठस्थ करते थे। पालि त्रिपिटक जहां बुद्ध-निर्वाण के प्रायः साढ़े चार शताब्दियों बाद लेखबद्ध कर लिया गया, वहां जैन