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संदेश
प्रिय महोदय, भीलवाड़ा सप्रेम हरिस्मरण ।
आपका सौजन्यपूर्ण पत्र १८-८-५५ का लिखा मिला, एतदर्थ धन्यवाद । उत्तर देरी से जा रहा है, इसके लिये क्षमा करें । आप इस ग्रन्थ के द्वारा अबतक दूर रहे जैन-साहित्य से जगत् को परिचित करना चाहते हैं और इसकी साम्प्रदायिक भित्तियों को तोड़ देना चाहते हैं, आपका यह उद्देश्य वस्तुतः सराहनीय है। आपकी यह मान्यता नितान्त सत्य है कि जैन-साहित्य किसी समुदाय-विशेष की सम्पत्ति न होकर जगत् की वस्तु है । आपने इस ग्रन्थ के संकलन में मेरा सहयोग चाहा है, इसके लिये में आपका कृतज्ञ हूँ । समयाभाव के कारण संदेश के रूप में कुछ ही शब्द लिखकर मैं संतोष करूँगा । वस्तुतः मेरा जैनधर्मविषयक ज्ञान इतना नगण्य है कि उसके सम्बन्ध में कुछ भी लिखना मेरे लिये अनधिकार चेष्टा ही होगी। मैं तो केवल इतना कहूँगा कि भगवान् सब के हैं और सब में हैं। वे किसी भी संप्रदाय एवं दार्शनिकवाद की सीमा से आबद्ध नहीं हैं। वे ऐसे हैं और ऐसे नहीं है, यह कहना उनकी व्यापकता एवं महानता को कम करना है । अवश्य ही उनको भजने के, उनके समीप पहुंचने के मार्ग भिन्न-भिन्न हैं। किसी भक्त कविने क्या ही सुन्दर कहा है
रुचीनां वैचिच्यादृजुकुटिलनानापाथजुषा ।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥ 'जिस प्रकार सभी नदियों का जल सीघे अथवा टेढ़े मार्ग से बहकर अन्त में जाता है समुद्र में ही, उसी प्रकार सभी मनुष्यों का अन्तिम लक्ष्य एक है; वहाँ तक पहुंचने के मार्ग अपनी-अपनी रुचि के अनुसार अलग-अलग हैं।'
'एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति ।' सत्य तत्व एक है, उसके नाम अलग-अलग है। चैवलोग उसकी ' शिव ' नाम से उपासना करते हैं, वेदान्ती उसका ब्रह्मरूप में अपने ही अंदर साक्षात् करते हैं, बौद्ध उन्हें भगवान बुद्ध के रूप में देखते हैं, नैयायिक लोग उनका जगत् के सष्टारूप में भजन करते हैं, जैनी माई उन्हें 'अर्हत्' रूप में पूजते हैं तथा मीमांसक लोग उनका 'कर्म' नाम से गुण-गान करते हैं। वे मालरूप सर्वव्यापक श्रीहरि हमारा और आप सब का कल्याण करें, सब को सद्बुद्धि दें, सब को अपनी ओर आकृष्ट करें। यही उनके श्रीचरणों में प्रार्थना है
यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनो । बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कति नैयायिकाः ॥