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संदेश श्रीमान् सम्पादकजी,
श्रीमद् राजेन्द्रसूरि निर्वाण अर्धशताब्दी स्मारक-प्रन्थ, भीलवाड़ा ( राजस्थान ,
आपका दिनांक १८-७-५५ का पत्र हमें प्राप्त हुआ। हमें खेद है कि हम आपके ट्रैक्ट ' श्री राजेन्द्रसरि ' और ' विज्ञप्ति और विनम्र-विनय ' का उत्तर समय पर न दे सके। जैसा कि आपको ज्ञात होगा ही कि उस समय विश्वविद्यालयों में परीक्षा का कार्य होता है और इस कारण अध्यापकगण पर्याप्त व्यस्त रहते हैं। अस्तु, परीक्षा में संलग्न होने के कारण आपके पत्रों का उत्तर न दिया जा सका । आशा है आप क्षमा करेंगे।
आपके इस महान् विद्यायज्ञ की खबर सुनकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई । आपके इस महत्त्वपूर्ण प्रयत्न में हमारा हार्दिक सहयोग और शुभ कामनायें हैं। परन्तु कार्यव्यस्तता के कारण हम कार्यान्वित सहयोग न दे पायेंगे । आशा है आप हमारी विवशता समझ कर क्षमा करेंगे। लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ.
. भवदीय, २८-७-१९५५
धीरेन्द्रनाथ मजुमदार
प्रिय महोदय, भीलवाड़ा
यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि श्रीमद् राजेन्द्रसूरि स्मारक-प्रन्थ निकल रहा है। श्रीमद्राजेन्द्रसूरिजीने स्वयं ही अपना मार्ग प्रशस्त किया और दूसरों के लिये पथप्रदर्शक बने । उनका चारित्रिक बल, उनकी विद्वत्ता और निर्भीकता सराहनीय हैं। उनके प्रन्थ ही उनके सच्चे स्मारक हैं। फिर भी कृतज्ञता प्रकाशनार्थ स्मारक-प्रन्थ निकलना आवश्यक है । मैं लेख भेज कर इसमें योग देना अपना गौरव समझता; किन्तु स्वास्थ्य के कारण विवश हूँ। जैनधर्मने अहिंसा, त्याग और चारित्रिक ऋजुता के जो आदर्श हमारे सामने रखे हैं वे सर्व धर्मों में मान्य हैं। उनके मानने में ही मनुष्यजाति का कल्याण है। भाशा है इन सिद्धान्तों का प्रचार इस स्मारक-प्रन्थ द्वारा हो सकेगा। गोमती-निवास, आगरा
विनीत, गुलाबराय २१-१२-५५