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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि - स्मारक -ग्रंथ
अनित्यथ जैन शासनरताः कर्मेति मीमांसकाः । सोऽयं वो विदधातु वाञ्छितफलं त्रैलोक्यनाथो हरिः ॥ बस, इतना कहकर मैं आपके प्रयास की सफलता चाहता हूँ ।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग् भवेत् ॥
' सभी सुखी हों, सभी निरोगी रहें, सभी अच्छे दिन देखें, किसी को भी दुःख का भाग न मिले । '
अन्त में मैं भगवान् श्री ऋषभदेवजी की निम्नलिखित प्राचीन श्लोक के द्वारा वन्दना करता हुआ अपने लिये उनके आशीर्वाद की भिक्षा करता हूँ
नित्यानुभूतिनिजला भनिवृत्ततृष्णः श्रेयस्यतद्रचनया चिरसुप्तबुद्धेः । लोकस्य यः करुणया भयमात्मलोकमाख्यान्नमो भगवते ऋषभाय तस्मै ॥
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निरन्तर विषय-भोगों की अभिलाषा करने के कारण अपने वास्तविक कल्याण के प्रति चिरकाल तक उदासीन हुए लोगों को जिन्होंने करुणावश निर्भय आत्म-तत्व का उपदेश दिया और जो स्वयं निरन्तर अनुभव होनेवाले आत्मस्वरूप की प्राप्ति से सब प्रकार की तृष्णाओं से मुक्त थे, उन भगवान् श्री ऋषभदेवजी को नमस्कार है । '
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।
गीताप्रेस गोरखपुर
मार्गशीर्ष कृ. २, सं. २०१२
विनीत, चिम्मनलाल गोस्वामी
The Editor, Shrimad Rajendrasūri - Smārak-Granth, Bhilwara, Mewar - Rājasthān, India.
Dear Sir,
I greatly admired all the work of the late Räjëndrasūri, in particular his lexicographical achievement in the "Abhidhāna Rājēndra Kosha", but I am afraid my present commitments make it impossible for me to promise a contribution to the Memorial Volume.
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University of London. W.C.I. 20th May, 1955.
Yours faithfully, R. L. Turner.