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साहित्य संत साहित्य के निर्माण में जैन हिन्दी कवियों का योगदान ।
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कवि आनंदघनने बहुतसी ऐसी पंक्तियां भी लिखी हैं जो हिंदी के अन्य संत कवियों के अनुकरण में रची गई प्रतीत होती हैं । जैसे—
तथा,
और,
एक अनेक अनेक एक फुनि, कुंडल कनक सुभावै । जल तरंग घट मांही रवि कर, अगनित नाहिं समावै ॥' देखो एक अपूरव खेला |
आप ही वाजी आप बाजीगर, आप गुरु आप चेला ॥' ऐसे जिन चरने चित ल्याऊं रे मना, ऐसे अरिहंत के गुन गाऊं रे मना ॥
उदर भरन के कारणे रे गौ वन में जाय ।
चार चरे, चिहुं दिस फिरे, वांकी सुरति वछरुवा मांहि रे || सात पांच सहेलियां रे, हिलमिल पाणी जाय,
तालि दिये खड खड हंसे रे, वाँकी सुरति गगरुआ मांहि रे ||
इनमें से प्रथम दो पदांश तो संत कबीर साहब की पंक्तियों को देख कर लिखे गए जान पड़ते हैं और तीसरा संत नामदेव का एक पद देख कर । किंतु इसके कारण कवि आनंदघन को हम किसी का अंधानुसरण करनेवाला नहीं ठहरा सकते । इस प्रकार के प्रयोगों की कई भिन्न-भिन्न परम्पराएं चला करती थीं जिनसे अच्छे से अच्छे कवि भी, अपनी रचना करते समय, लाभ उठाया करते थे । बहुत से कवियोने तो अनेक लोकप्रिय रचनाओं की शब्दावली तक को अपनाने में हिचक का अनुभव नहीं किया है ।
विक्रम की अठारवीं शताब्दी में भी बहुत से ऐसे जैन कवि हुए हैं जिनकी रचनाएं संतसाहित्य का अंग बन सकती हैं। भैया भगवतीदास का रचनाकाल सं० १७३१ से सं० १७५५ तक समझा जाता है और वे एक उच्च कोटि के प्रभावशाली कवि थे । उनकी रचनाओं में भी हमें ऐसी पंक्तियां मिलती हैं जो संत कवियों के पदों के लिए उपयुक्त कही जा सकती हैं, किन्तु उनकी संख्या बहुत अधिक नहीं है । इनमें,
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आतमरस चाख्यौ मैं अद्भुत, पायो परम दयाल । * तथा, चेतहु चेत सुनो रे भैया, आप ही आप संभारो ।"
जैसी कुछ पंक्तियों की ही गणना की जा सकती है और उनकी उपलब्ध रचनाओं में
१. वही पृ० ३५७ । २. पृ० ३८२ । ३. पृ० ४०१ -२ । ४. ' हिं० जै० सा० का इतिहास' पू० १४२-३ । ५ अ० पदावली पृ० ९९ ( प्रस्तावना )