Book Title: Rajendrasuri Smarak Granth
Author(s): Yatindrasuri
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh

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Page 824
________________ साहित्य राजस्थानी जैनसाहित्य । ७१५ इस प्रकार ४-५ विद्वानों के ही जब तीन-चार लाख श्लोक परिमित हो जाता है, तो समग्र राजस्थान जैन साहित्य का परिमाण १० लाख श्लोक परिमित होने में कोई भी संशय नहीं। इतने विशाल साहित्य की उपेक्षा अवश्य ही अनुचित है। इन ग्रंथों में से चुने हुए उपयोगी ग्रन्थों की ग्रन्थमाला प्रकाशित हो तो जनसाधारण का बहुत बड़ा उपकार हो सकता है। उनका जीवनस्तर इस प्राणवान् साहित्य से प्रेरणा पाकर अवश्य ही उन्नतिशील हो सकता है। अभी जैनों को स्वयं को भी उनके साहित्य का ठीक महत्त्व ज्ञात नहीं है। अतः राजस्थानी जैन साहित्य का इतिहास प्रकाशित होना अत्यावश्यक है। १३ वीं से २० वीं तक के ७०० वर्षों के साहित्य के विकास का कुछ परिचय जैन गुर्जर कविओ मा. १-२-३ से मिल सकता है। स्थानाभाव से यद्यपि यहां रूपरेखा मात्र रखी गई है, कवि व ग्रंथादि नाम देना संभव नहीं; परन्तु इससे ही काम नहीं चलेगा । जिनके हृदय में टीस हो, आगे आकर प्रान्त के उद्धार का शंखनाद पूरना चाहिये । जन-जनमें, घर २ में जागृति का शंख फूंके बिना भविष्य और भी अंधकारमय है । राजस्थान में जैनधर्म के प्रचार का प्रारंभ वर्तमान उत्सर्पिणी अर्थात् अवनत काल में जैनधर्म के प्रचारक जो चौवीस तीर्थकर हो गये हैं उनके जन्म, दीक्षा, निर्वाण आदि स्थलों के नामों पर दृष्टि डालने से विदित होता है कि प्राचीनकाल में जैनधर्म का प्रचार भारत के पूर्वीय, उत्तरीय एवं मध्यभाग में ही विशेष रूप से रहा है। दक्षिण भारत में तो जैनधर्म का प्रचार विशेष सम्भव पूर्वीय भाग में महान् दुष्काल आदि पड़ने के समय में आचार्य भद्रबाहु के विहार के पश्चात् ही हुआ है। पश्चिमी भारत के मरु आदि प्रदेशों में तब तक आवादी बहुत साधारण ही होगी । पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण के बाबा समुद्रविजय के पुत्र भगवान् श्रीनेमिनाथ के धर्मशासन के सम्बन्ध में श्रीकृष्ण के मथुरा व सौरीपुर से चलकर द्वारिका में बस जाने पर दक्षिण-पश्चिम में जैनधर्म का प्रचार ठीक से हो गया । अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर का विहार भी मालवे तक ही हुआ प्रतीत होता है । मरु-जांगल आदि राजस्थान प्रदेश की ओर उनके विहार आदि का प्राचीन प्रमाण नहीं मिलता । अतः विशेष सम्भव है कि भगवान महावीर के बाद मालवे से आगे बढ़ कर चितौड़ के निकटवर्तीय मज्झमिका नगर में जैन श्रमणों का विहार हुआ तभी से राजस्थान में जैनधर्म का प्रचार विशेष रूप से हुआ होगा। वीर संवत् ८४ (चौरासी) के लेखवाले शिलाखण्ड में मज्झमिका का नाम मिलता है । कल्पसूत्र की स्थिरावली से विदित होता है कि जैनाचार्य आर्यसुहस्ति के शिष्य प्रियग्रन्थसूरि से मज्झमिका नामक शाखा प्रसिद्ध हुई । जिसका समय वीर निर्वाण सं. तीन सौ और चार सौ के बीच में है। ये भाचार्य यज्ञ की

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