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साहित्य
राजस्थानी जैनसाहित्य । १७ वीं से तो दोनों भाषाओं में उल्लेखनीय अन्तर हो जाता है । अतः उनकी भाषा का पृथक् उल्लेख करना आवश्यक था। मैंने यह सुझाव देसाई को दिया था और उन्होंने अपने ग्रंथ के तीसरे भाग में उसका कुछ उपयोग भी किया है। देसाईने अपने इस ग्रंथ के तीन भागों में सैकड़ों कवियों की हजारों रचनाओं का विवरण प्रकाशित किया है, पर प्रन्थ गुजराती लिपि में छपा है और · जैन-गुर्जर कवियों' के नाम से है, अतः राजस्थान के विद्वानों का राज. स्थानी जैन साहित्य के महत्व की ओर ध्यान अभी तक जैसा चाहिये वैसा नहीं जा सका ।
राजस्थानी भाषा के जैन साहित्य से ही नहीं, जैनेतर प्राचीन साहित्य से भी हमारे विद्वान् उसके गुजराती में प्रकाशित होने के कारण अपरिचित रहे हैं। रणमल छंद, कान्हड़दे प्रवन्ध, सदयवत्स प्रबन्ध, हंसावली आदि १५ वीं एवं १६ वीं के प्रारम्भ की रचनाएं जो गुजराती के नाम से प्रसिद्ध हैं, वात्सव में प्राचीन राजस्थानी की ही हैं।
राजस्थानी जैन साहित्य की उपयोगिता, विविधता एवं विशेषता पर संक्षिप्त प्रकाश डालने के अनन्तर उसकी विशालता पर भी कुछ कह देना आवश्यक हो जाता है । संक्षेप में तो पहले यह कहा ही जा चुका है कि समग्र राजस्थानी साहित्य का सबसे बड़ा अंश जैनों द्वारा रचित है, और चारणों का साहित्य जो राजस्थानी भाषा का सबसे प्रधान साहित्य माना जाता है उससे भी अधिक विशाल है । इसका कुछ आभास निम्नोक्त बातों से मिल जायगा (१) चारण आदि जैनेतर कवियों की रचना १५ वीं शताब्दी से मिलती हैं और वे भी १७ वीं शताब्दी के पहले की तो इनी-गिनी ही हैं। जबकि इन मध्यवर्ती ४०० वर्षों में
जैन विद्वानोंने निरन्तर राजस्थानी में रचना की है और वे छोटी-मोटी शताधिक संख्या में हैं। पद्य साहित्य के साथ-साथ इस समय की गद्य-रचनायें भी प्रचुर हैं। जबकि १७ वीं शताब्दी से पहले की जैनेतर गद्यराजस्थानी-रचना स्वतंत्र रूप से एक भी प्राप्त नहीं है। केवल अचलदास खीची की वचनिका में गद्य के थोड़े से उदाहरण मिलते हैं। जबकि इन ४०० वर्षों में करीब ५०-६० ग्रन्थों के बड़े-बड़े वालावबोध राजस्थानी गद्य में जैन विद्वानों के निर्मित प्राप्त हैं । खरतरगच्छीय विद्वान् मेरुसुन्दर अकेले ने ही २० ग्रन्थों पर गद्य में बालावबोध-भाषा टीका लिखी हैं। जिनका परिमाण ३०-४० हजार श्लोक के करीब का होगा। चारण आदि कवियों द्वारा ख्यातों का लेखन अकबर के समय से प्रारम्भ हुआ प्रतीत होता है । गद्य-वार्तायें तो अधिकांश १८ वीं शताब्दी में ही लिखी गई हैं।
(२) रचनाओं की संख्या पर दृष्टि डालने से भी जैनेतर-राजस्थानी साहित्य के बड़े २ ग्रन्थ तो बहुत ही थोड़े हैं, फुटकर दोहे एवं डिंगल गीत ही अधिक हैं, जब कि राजस्थानी