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भीमद् विजयराजेन्द्रसरि-स्मारक-य हिन्दी जैन राजस्थानी जैन रचनाओं की विविधता जानने के लिए उन रचनाओं की विविध संज्ञाओं पर दृष्टि डालना ही काफी होगा! नागरी प्रचारिणी पत्रिका नं. ५८ अं. ४ में मैंने उन संज्ञाओं का कुछ परिचय अपने 'प्राचीन काव्यों की विविध संज्ञाएँ' लेख में बताया है। उसे पढ़ने का अनुरोध है।
यहां यह प्रश्न होना स्वाभाविक है कि राजस्थानी जैन साहित्य जब इतना विविध, विशाल एवं महत्त्वपूर्ण है तो उसकी आज तक यथोचित जानकारी क्यों नहीं प्रसिद्ध हुई ! कारण स्पष्ट है कि जैन मुनि एवं श्रावकलोक अपने धार्मिक कार्यों को सम्पन्न करने में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ बैठे हैं। साहित्य-प्रेम और अपने साहित्य के महत्व के संबंध में प्रकाश डालने की प्रवृत्ति उनमें बहुत कम देखने में आती है और जनतर विद्वानों में बहुत से तो साम्प्रदायिक-मनोवृत्ति के कारण जैनसाहित्य के अन्वेषण एवं अध्ययन में रुचि नहीं रखते । कुछ निष्पक्ष विद्वान हैं, उन्हें प्रथम तो सामग्री सुगमता से प्राप्त नहीं होती, दूसरा जैनसाहित्य साम्प्रदायिक विशेष है-इस धारणा के कारण वे उसकी प्राप्ति का अधिक प्रयत्न भी नहीं करते । यद्यपि जैनसाहित्य बहुत विशाल परिमाण में प्रकाशित भी हो चुका है। उसका परिचय पाने के साधनभूत ग्रंथ भी काफी प्रकाशित हो चुके हैं। उदाहरणार्थ-जन विद्वानों के रचित प्राकृत भाषा संबंधी साहित्य के संबंध में प्रो० हीरालाल कापड़िया का ' पाइय भाषा अने साहित्य ' नाम का ग्रंथ प्रकाशित हो चुका है। जैनागमों की आवश्यक जानकारी, उनके अन्य ग्रंथ · अर्हत् आगमोनूं अवलोकन' और A History of Caun nical Literature of the Jains ' दलसुख मालवणिया का 'जैन आगम' और डा० विमल चरण के अंग्रेजी में भी कई ग्रंथ प्रकाशित हैं । जैन आगमों की महत्त्वपूर्ण बातों के संबंध में डा. जगदीशचंद्र जैन का थीसिस भी अच्छा प्रकाश डालता है । संस्कृत जैनसाहित्य के संबंध में डा० विन्टरनीज का इतिहास भी ठीक प्रकाश डालता है । वैसे स्वतंत्र समग्र साहित्य का परिचायक श्रीयुत् मोहनलाल दलीचंद देशाई का " जैनसाहित्यनो संक्षिप्त इतिहास" तो अत्यन्त मूल्यवान् ग्रंथ है । २०/२५ वर्ष के कठिन परिश्रम से वह तैयार किया गया है और जैन इतिहास की झांकी भी उससे मिल जाती है। प्रो. वेलणकर का 'जिनरत्नकोश' ग्रंथ दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों संप्र. दाय के प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश भाषा के ग्रंथों की वृहत्सूची है।
जहां तक राजस्थानी जैन साहित्य का संबंध है-इसके महत्व एवं विशालता की जानकारी का प्रधान कारण यह है कि राजस्थानी और गुजराती दोनों भाषाओं की रचनाओं का विवरण 'जैन गुर्जर कवियों' में एक साथ ही छपा है। वैसे १६ वीं शताब्दी तक तो दोनों भाषायें एक ही थी, अतः गुजरातवालों ने उन्हें प्राचीन गुजराती की संज्ञा दी है। पर