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साहित्य
जैनाचार्यों की छन्दशास्त्र के लिये देन ।
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महत्वपूर्ण कृतियां उपलब्ध हुई हैं जो न केवल संस्कृत छन्दों पर ही, बल्कि प्राकृत और अपभ्रंश के छन्दों पर भी प्रचुर प्रकाश डालती हैं ।
इन ग्रन्थों का तुलनात्मक अध्ययन करने से तथा जैन काव्यों के आलोड़न करने से यह भली भांति विदित होता है कि जैन विद्वानों ने छन्दशास्त्र के विकास में कितना बड़ा योग दिया है। उन्होंने ध्वनि एवं संगीत के अनुरूप विविध नये छन्दों को बनाने के उपाय बताये और इस तरह छन्दशास्त्र की परम्परा में अज्ञात अनेक छन्दों को जन्म दिया । उदाहरण के लिये हम भगवज्जिनसेन और उनके शिष्य गुणभद्र की रचनायें - आदिपुराण और उत्तरपुराण को ही देखें तो यह बात स्पष्ट ज्ञात हो जाती है कि उन विद्वानों ने जपनी अनूठी रचनाओं में संस्कृत साहित्य में प्रचलित प्रसिद्ध और अप्रसिद्ध छन्दों के अतिरिक्त १८-२० ऐसे छन्दों का प्रयोग किया है जिन्हें हम आधुनिक छन्दशास्त्रों में बड़ी कठिनाई से पावेंगे । उसी प्रकार दूसरे कवि सोमदेव के यशस्तिल चम्पू को देखने से मालूम होता है कि उसमें इतने प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया गया है कि जिनका विश्लेषण करना अति कठिन है । इस काव्य में सोमदेवने संस्कृत के विविध छन्दों के साथ प्राकृत और अपभ्रंश के अनेक छन्दों का संस्कृत की कविता में प्रयोग कर कवित्व का कौशल दिखाया है । इसमें दुबई (द्विपदी ) मयणावयार ( मदनावतार ) चौपई ( चतुष्पदी ) पज्झटि का ( पद्धति का ), धत्ता, क्रीड़ा आदि प्राकृत, अपभ्रंश छन्दों को संस्कृत छन्दों के रूप में पाते हैं ।'
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अनुसंधान करने पर मालूम होता है कि इस क्षेत्र में न केवल जिनसेन व सोमदेव ही थे, बल्कि उनसे पहले कुछ आचार्योंने इस दिशा में प्रयत्न किये हैं। पूज्यपाद की संस्कृत भक्तियां ( दशभक्ति ग्रन्थ ) दुबई छन्द के सुन्दरतम उदाहरण हैं ।
ईसा की ८ वीं शताब्दी से लेकर १५ वीं तक जैन छन्दकारोंने भारतीय छन्दशास्त्र क क्षेत्र में एक क्रान्तिसी ला दी । इनमें सर्व प्रधान आचार्य हेमचन्द्र का नाम सदास्मरणीय है । इन्होंने पचासौ नये छन्दों को आविष्कृत कर सोदाहरण प्रस्तुत किये और अपनी विविध साहित्यिक कृतियों में उनका उपयोग भी किया ।
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जैन विद्वानों द्वारा यह कार्य इस लिए भी सुकर हुआ कि वे संस्कृत प्रकाण्ड विद्वान् होने के साथ प्राकृत और देशी भाषाओं के भी बड़े विद्वान् होते थे । जनसमुदाय में अपने धर्म का प्रसार करने के लिए उन्हें निरन्तर प्राकृत एवं देशी बोलियों का सहारा लेना पड़ता था । उन्होंने जनसामान्य के कणों से परिचित प्राकृत छन्दों को सरलता से संस्कृतरूप
१ यशस्तिलक एन्ड इन्डियन कल्चर ( जीवराज जैन ग्रन्थमाला ) पृ. १७७ ।