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राजस्थानी जैनसाहित्य श्री अगरचंद नाहटा
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राजस्थानी जैन साहित्य की विशालता, विज्ञानता एवं विशेषताएँराजस्थानी भाषा अपभ्रंश की जेठी बेटी है । अपभ्रंश भाषा साहित्य की सब से अधिक विशेषताएं इसी भाषा व साहित्य में दृष्टिगोचर होती हैं। इसका प्राचीन नाम मरुभाषा है । राजस्थानी जैन साहित्य बहुत विशाल एवं विविध है । विशाल इतना कि परिमाण मेरी धारणा के अनुसार चारणों के साहित्य से भी बाजी मार लेगा । उसकी मौलिक विशेषताएं भी कम नहीं हैं। उसकी सब से प्रथम विशेषता यह है कि वह जन - भाषा में लिखा है। अतः वह सरल है । चारणों आदिने जिस प्रकार शब्दों को तोड़-मरोड़ कर अपनी ग्रंथों की भाषा को दुरूह बना लिया है वैसा जैन विद्वानोंने नहीं किया है । इसीलिये वह बहुत बड़े क्षेत्र में सुगमता से समझा जा सकता है । उसकी दूसरी विशेषता है जीवन को उच्च स्तर पर लेजाने वाले प्राणवान् साहित्य की प्रचुरता । जैनमुनि निवृत्ति - प्रधान थे । वे किसी राजाओं आदि के आश्रित नहीं थे जिससे उन्हें बढ़ाकर चाटुकारी वर्णन करने की आवश्यकता होती । युद्ध में प्रोत्साहित करना भी उनका धर्म नहीं था और शृंगार रसोत्पादक साहित्य द्वारा जनता को विलासिता की ओर अग्रसर करना भी उनके आचार विरुद्ध था । अतः उन्होंने जनता के उपयोगी और उनके जीवन को ऊंचे उठानेवाले साहित्य का ही निर्माण किया । चारणों का साहित्य वीररसप्रधान है और उसके बाद शृंगार रस का स्थान आता है । भक्तिरचनाएं भी उनकी कुछ प्राप्त हैं। पर जैन साहित्य में नैतिकता और धर्म प्रधान हैं और शान्त रस की मुख्यता तो सर्वत्र पाई जाती है। जैन विद्वानों का उद्देश्य जन-जीवन में आध्यात्मिक जागृति फूंकना था । नैतिक और भक्तिपूर्ण जीवन ही उनका चरम लक्ष था । उन्होंने अपने इस उद्देश्य के लिये कथानकों को विशेषरूप से अपनाया । तत्वज्ञान सूखा विषय है । साधारण जनता की वहां तक पहुंच नहीं और न उसमें उनकी रुचि व रस हो सकता है । उनको तो दृष्टान्तों के द्वारा धर्म का मर्म समझाया जाय तभी उनके हृदय को वह धर्म छू सकता है । कथा-कहानी सबसे अधिक लोकप्रिय होने के कारण उसके द्वारा धार्मिक तत्त्वों का प्रचार शीघ्रता से हो सकता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने दान, शील, तप और भावना एवं इसी प्रकार के अन्य धार्मिक व्रत - नियमों को ( ८६ )