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साहित्य
जैनाचार्यों की छन्दशास्त्र के लिये देन । अन्थ का उल्लेख जिनप्रभसूरि (सं. १३६५) करते हैं। ग्रन्थ में ६ अध्याय हैं। प्राकृत छन्दों का विवेचन प्राकृत भाषा में किया गया है । छन्दों में यति की योजना के विषय में ग्रन्थकारने पिङ्गल और स्वयम्भू का अनुसरण किया है। मात्रा छन्दों के वर्णन में ग्रन्थकार ने अपनी मौलिकता का परिचय दिया है। इन्हें ११ भागों में विभक किया गया है, जिन में द्विपदी, चतुष्पदी, पञ्चपदी, षट्पदी छन्द और अष्टपदी तो एक से चरणों के बने होते हैं तथा सप्तपदी, नवपदी, दसपदी, एकादशपदी, द्वादशपदी एवं षोडशपदी छन्द किसी अन्य छन्दों के २ या ३ चरणों के सहारे से बनाये जाते हैं । इस प्रकार के छन्दों को सार्धच्छन्द कहते हैं । यद्यपि वैदिक छन्दों में इस प्रकार के छन्द पाये जाते हैं, पर प्राकृत और अपभ्रंश भाषा में इन का प्रयोग बड़ी स्वतन्त्रता से हुआ है।
कविदर्पणकारने अनेकों अपभ्रंश छन्द-उल्लासक, दोहक, धत्ता आदि को प्राकृत छन्दों के रूप में अपना लिया हैं । हेमचन्द्रने दोहा छन्दों की स्थिति गौण रखी है जब कि कविदर्पण में उन्हें मुख्य स्थान दिया गया है । कविदर्पणकार एक व्यावहारिक पुरुष थे । उन्होंने अपने युग में व्यवहृत छन्दों पर ही विशेषरूप से जोर दिया है और इस तरह अपने समय के भाद- उपयोग के लिए पथप्रदर्शक का काम किया है। उनकी सबसे बड़ी देन है छन्दों के बीच सार्धच्छन्दों को स्थान देना।'
अमरचन्द्रसूरि-ये प्रसिद्ध जैन महामात्य वस्तुपाल के विद्यामण्डल के चमकते हुए तारों में से एक थे । इनके ग्रन्थ का नाम छन्दोरत्नावली है । ग्रन्थ ८ अध्यायों में विभक्त है। प्रथम ६ अध्यायों में संस्कृत छन्दों का, ७ वें में प्राकृत छन्दों एवं ८-९ वें में अपभ्रंश छन्दों का वर्णन है । ग्रन्थ पर आ. हेमचन्द्र के छन्दोनुशासन की पूर्ण छाप है। आकार में वह छन्दोनुशासन का एक चौथाई है, पर व्यावहारिक दृष्टि से छन्द सीखनेवालों के लिए बहुत उपयोगी है। ग्रन्थकारने छन्दों के उदाहरण ग्रन्थान्तरों से दिये हैं। अपभ्रंश छन्दों के जो उदाहरण दिये गये हैं वे उक्त भाषा के साहित्य पर इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। ___ रत्नशेखरसूरि:-ये नागपुरीय तपागच्छ के आचार्य हेमतिलक के शिष्य थे। इनका समय वि. सं. १४२८-५० है । ग्रन्थ का नाम 'छन्दोकोश' है जो कि ७४ प्राकृत गाथाओं में प्राकृत छन्दों का विवेचन करता है । ग्रन्थ प्राकृत पिङ्गल से बहुत मिलता-जुलता है।
१. प्रो. वेलणकर, कविदर्पणम् , भण्डारकर. ओ. रि. इ. पूना की खोजपत्रिका, भाग १६, सं. १-२; भाग १७ सं. १-२। २. डा. भोगीलाल साण्डेसराः महामात्य वस्तुपाल का विद्यामण्डल (अंग्रेजी भारतीयविद्या भवन से प्रकाशित) पृ. १७५-१७६.